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कविता – सवाल – जवाब
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सवेरे का सूरज जब
शाम को ढल जाता है
इस सफ़र में क्या उसका
रंग भी बदल जाता है ?
धूप ,बादल ,धुन्ध , बरखा जहां
इक महीन धागे के ही सिरे है
ऊँची इमारतों के उस शहर में
बुज़ुर्ग दरख्त कैसे हरे भरे हैं ?
मेरी नज़र का हरेक सपना
मुकम्मल होता सा दिख रहा है
तुम्हारे जूड़े में बंधा ये गजरा
तभी क्या अब तक महक रहा है ?
भरा हुआ है जो दर्द दिल में
वो बनके आँसू पिघल रहा है
जो ग़म था मेरी निज़ी अमानत
बाज़ार में क्यूँ निकल रहा है ?
ये सारे एहसास इस दौर में जब
सवाल बनकर खड़े हूए हैं
मैं शांत बैठा नदी किनारे
भीतर अपने भटक रहा हूँ
लगाके गोते भंवर में मन के
जवाब हासिल यही हुआ है
कि इस सदी में तमाम चेहरे
आईना पहने टहल रहें हैं
मगर किसी को पसंद नहीं है
पढ़ना जो कुछ लिखा हुआ है
इन आँखों के ठीक सामने बस
खुशी के लम्हे कुचल -कुचल के
ग़मों का बोझा लिए सरों पे
ज़िन्दगी के इस हसीं सफ़र में
हम दौड़ने की अज़ीब धुन में
ज़रा ठहरना भुला चुके हैं .
मनीष “आशिक़ “
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