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वो देखो कौन चली आ रही है?
गहरे रिश्तों के बने चमकीले मोती,माला में पिरोकर,
प्रेम का अथाह सागर, गहरें नेत्रों में भरकर,
मुस्कराहट की लाली, ओंठों पर सजाकर,
शान्ति की ओट में, केशों को लहराकर,
अपार खुशियाँ बिखेरती चूड़ियों को खनकाकर,
मर्यादाओं में लिपटी पायल, पाँव में बांधकर,
मनमोहक सुंदरता को, चेहरे पर बिखेरकर,
ममता का आँचल, तन पर लपेटकर,
त्याग, क्षमा, धीरता व विनम्ररुपी सुगंध महकाकर,
वो देखो कौन चली आ रही है?
वो कौन रूपसी है जो सब भावों से निर्मित,
या कोई देवी, जो पूजनीय है?
अरे, कोई और नहीं,समाज की अभिलाषा से जन्मी अबला,
जिसे चाहता हरेक,आकांशाओं की उड़ान में संजोना,
अपने जीवन और ह्रदय में समेटना,
इसी कल्पनारूपी भवसागर में गोते लगाना,
बस नही चाहता कोई ओर यौवना |
कब होगी पूरी उसकी लिप्सा,
इसी इच्छाग्नि में खुद को जलाता,
जब वास्तविकता के होता समक्ष,
कचोटता रहता अपना वक्ष |
कुछ शीघ्र सदमें से उबर जाते,
कुछ शोंक के सागर में डूब जाते,
कुछ किस्मत का नाम देते,
कुछ धोखा समझ लेते |
हे मानुष ! बांधले अनंत आशाएं,
न धिक्कार किस्मत और दशाएं,
नारी को दे सम्मान, दे उसका अधिकार,
न कर पल-पल निरादर, न तिरस्कार,
कर उसका सत्कार, दे असीम प्यार|
फिर देख….
जो बनी है कल्पनाओं के पंख से,
भरी है घर-आँगन को खुशियों से,
मिल जायेगा वो सब,उस नारी में,
जिसे ढूंढता था कभी,स्वपनों की पिटारी में|
शीतल अग्रवाल
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