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आज भी याद आता है घर का वो इक कोना
जिसकी शरण लेकर हम बड़े हुए||
वो दिवाली के पटाखों की गड़गड़ाहट
वो होली के रंगों में रंगे लोगों की आहट।
आज भी याद आता है घर का वो इक कोना
जिसकी शरण लेकर हम बड़े हुए||
वो डर पापा की डांट और मम्मी की मार का
वो छुप जाना और सिसक कर रोना।
आज भी याद आता है घर का वो इक कोना
जिसकी शरण लेकर हम दृढ़ हुए||
वो अँधेरो के साये में छुपकर चिंतन-मनन करना
वो उज्जवल भविष्य के स्वप्न आँखों में संजोना।
आज भी याद आता है घर का वो इक कोना
जिसकी शरण लेकर हम खड़ेे हुए||
वो छुप-छुप कर प्रेमरूपी बातें बतियाना
वो जिसकी छत्र-छाया में सम्बन्ध का गहराना।
आज भी याद आता है घर का वो इक कोना
जिसकी शरण लेकर हम जवां हुए||
वो जीवनसाथी से छुप-छुप कर प्रेमालिंगन करना
वो किसी की इक आवाज़ पर बेबसी से मौन रहना।
आज भी याद आता है घर का वो इक कोना
जिसकी शरण लेकर रिश्ते अंतरंग हुए||
वो बच्चे का गीली पैंट में डर से छुपकर खड़े होना
याद आ जाती है सारी स्म्रतियां और बिखर जाती है इक मुस्कराहट…
देखकर वो इक कोना।
कि आज भी ये सिलसिला चला आ रहा है
और इक कोना सब पर कृपा बरसा रहा है||
अब ज़िन्दगी के उस पड़ाव पर जहाँ पड़ता है बिछुड़ना
वो सुनहरी स्मर्तियों में साथी को तलाशना।
वो किसी की आहट पर अश्रुओंं को समेटना
बस रह गए है हम और घर को वो इक कोना||
यही इक कोना है जिसने सुख-दुःख में साथ निभाया
जो केवल दोस्त नही हमदर्द बनकर आया।
बस याद रह जाता है घर का वो इक कोना
जिसकी शरण लेकर हम परिपक्व हुए||
शीतल अग्रवाल
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