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प्रस्तुत कविता में एक कवि की मनोस्थिति को दर्शाया है जो अपनी कल्पनाओं में डूबकर प्रेमिका को याद करते हुए एक तुच्छ वृक्ष को ही अपनी प्रियतमा मान लेता है| अतः उस प्रेयसी की प्रेमरूपी भावनाएं एक कविता के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है-
ग्रीष्म ऋतु की भोर भये
झरोखे से झांकती किरणें
बिखर जाती शांत मुख पे
स्वप्नों की मीठी चाशनी में डूबे
चुंधियातें रसीले नैन
होता निद्रित तन बेचैन
तब छाँव बन, छू लेती अधरों को
कोंध जाती इक कम्पन
नही समझ पाता उस अहसास को
भर जाती हिय में इक तड़पन….
जब फड़फड़ाती, पंखरूपी तरु लतायें
लगता जैसे प्रेयसी आँचल फहराये
चूम न ले मरीचि मुख को
बन दृढ़ दीवाल अड़ जाए
छुए ना किरणें शीतल छाँव को
शीश झुका ओढ़नी ओढ़ाए
ताकि निद्रा में कोई डाले न खनन
नही समझ पाता उस अहसास को
भर जाती हिय में इक तड़पन….
जब सर पर दिन चढ़ने लगता
व सूरज अपना कोप बरसाता
बढ़ जाती है ग्रीष्म तपन
मचल जाता है व्यस्त तन
तब लहराती, जालरूपी घनी जटायेंं
लगता जैसे प्रिया, प्रीतम को पंखा झलाये
बहती हवा में ताज़गी से हो उल्लास मन
वो डूब जाती प्रेमरस में दासी बन
ताकि लेखन में कोई डाले न खनन
नही समझ पाता उस अहसास को
भर जाती हिय में इक तड़पन….
गोधूलि बेला में, सूर्य घर को रुख कर
गहराती साँझ, तारों से झिलमिल अम्बर
बिखरती स्निग्ध चांदनी मुख पर
एकाएक पत्तियां करती हिलमिल
जैसे हो उठी हैं तिलमिल
बढ़ती उस प्रेमिका की हिय-स्पंदन
देख दूसरी अप्सरा को, उसकी कुढ़न
बस आलिंगन करने को उत्सुक
स्वतः समर्पित होने को उन्मुख
नही समझ पाता उस अहसास को
भर जाती हिय में इक तड़पन….
शीतल अग्रवाल
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