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इक दिन पूछा नेत्र ने बूँद से हँसकर-
क्यों बरस जाती हो अक्सर?
करता प्रयास भावों को छुपाने का
तुम सबको जताने का
क्यों हो इतनी चंचल?
क्यों है हिय मचल?
कर कपोलों से अठखेलियां, अधरों में विलीन हो जाती
कभी इठलाती सी, मदमस्त जाने कहाँ खो जाती
तुम अंश हो मेरा, फिर क्यों नही मुझमें समाती?
क्यों हो इतनी हठी?
किसी बात पर रूठी?
बूँद ने दिया तर्क-
हे मेरे भाग्य!
क्या लौटता मुख से निकला वाक्य?
कलकल वाहिनी व कलरव विहग करते निज राग बाध्य?
क्या होता पुनः प्राप्त आत्मसम्मान?
झरझर वर्षा होती मेघों में अन्तर्धान?
क्या समेटता रवि रश्मि व चन्द्रिका मृगांक?
सीमित होते छायारूपी तरु व सुगन्धित पुष्प उघान?
मैं हूँ समान, अस्थावर मस्त पवमान
नेत्र ने कहा तुनककर-
मैं तेरा कलेवर, आवास
मुझसे है अस्तित्व, न कर परिहास
बूँद का पुनः तर्क-
मैं हूँ, निराश्रय परिंदा
इक गृह-विमुख वैरागी
सरोवर में निराधारी झरना
न लौटने वाली स्म्रति
हूँ इक देह-त्यागी आत्मा
बस मैं हूँ अवतरित, क्षणभंगुर बुलबुला ||
शीतल अग्रवाल
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