- 10 Posts
- 10 Comments
This composition is the manifestation of a person’s emotions who has gone under failure and misfortune and now is full of despair of unpromising life …
कभी टूट जाने को
कभी बिखर जाने को जी चाहता है
छुप-छुप कर सिसक रही नाकामीँ
घुट-घुट के चहक रही लाचारी
बस यूँ ही बिखरकर सिमट जाने को जी चाहता है
आँसू भी हँसते हैं मुझ पर कभी-कभी
तन्हाई भी नागिन सी डसती है निर्दयी
गम ही जैसे बन गए हैं अब हमराही
बेरहम ख़ुशी भी मुँह छुपा दूर निकल जाती
कभी ज़िन्दगी से नफरत
कभी अपनाने को जी चाहता है
बस यूँ ही बिखरकर सिमट जाने को जी चाहता है
राह में चलते हैं तो लग जाती ठोकर
ज़िन्दगी के मुरीद हो बना लिया नौकर
आँसू और गम भी अब उड़ाते हैं मज़ाक
जैसे कोई जा रहा चलता-फिरता जोकर
कभी लड़खड़ाकर बहक जाने को
कभी संभलकर लहक जाने को जी चाहता है
बस यूँ ही बिखरकर सिमट जाने को जी चाहता है
मेरी बेबसी व नाकामी पर ठहाके लगाते हैं लोग
ज़िन्दगी भर का अब ये बन गया है रोग
जाऊँ कहाँ इस अँधेरी वीराने से
तंग आ गया हूँ दिखावे के ज़माने से
कभी निराशा के साये मे ठहरनें
कभी उम्मीदों की रौशनी में जी चाहता है
बस यूँ ही बिखरकर सिमट जाने को जी चाहता है
शीतल अग्रवाल
Read Comments