! अब लिखो बिना डरे !
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औरत से खेलता है मर्द उसे मान खिलौना ,
औरत भी जानदार है नहीं बेजान खिलौना !
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नज़र उठी तो देख लिया आसमान पूरा ,
झुकी नज़र जो जानती थी पलक भिगोना !
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आज कलम थामकर लिखती हकीकत ,
उँगलियाँ जो जानती थी दूध बिलौना !
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लब हिले तो दास्ताँ दर्द की बयान की ,
सिले हुए दबाते रहे ज़ख्म घिनौना !
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‘नूतन’ वे चल पड़ी पथरीली राह पर ,
उनको नहीं भाता है अब उड़न-खटोला !
शिखा कौशिक ‘नूतन’
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