! अब लिखो बिना डरे !
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है विषमता ही विषमता
जाती जिधर भी है नज़र ,
कारे खड़ी गैरेज में हैं
और आदमी फुटपाथ पर .
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एक तरफ तो सड़ रहे
अन्न के भंडार हैं ,
दूसरी तरफ रहा
भूख से इंसान मर
है विषमता ही विषमता
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निर्धन कुमारी ढकती तन
चीथड़ों को जोड़कर
सम्पन्न बाला उघाडती
कभी परदे पर कभी रैंप पर
है विषमता ही विषमता
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मंदिरों में चढ़ रहे
दूध रुपये मेवे फल ,
भूख से विकल मानव
भीख मांगे सडको पर
है विषमता ही विषमता
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कोठियों में रह रहे
जनता के सेवक ठाठ से ,
जनता के सिर पर छत नहीं
धिक्कार इस जनतंत्र पर !
शिखा कौशिक
[नूतन ]
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