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”नारी को मत यूँ करो नग्न !”

! अब लिखो बिना डरे !
! अब लिखो बिना डरे !
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मत बहको इतना कवि-कलम,
मर्यादित हो करना वर्णन ,
श्रृंगार -भाव की आड़ में तुम ,
नारी को मत यूँ करो नग्न !
………………………………………
कामदेव के दास नहीं ,
तुम मात शारदा-तनय हो ,
न हो प्रधानता रज-तम की ,
अब सत्व-गुणों की प्रलय हो !
अनुशासित होकर करो सृजन !
नारी को मत यूँ करो नग्न !
……………………………
नारी-तन के भीतर जो उर ,
उसमें भावों का अर्णव है ,
कुच-केश-कटि-नयनों से बढ़ ,
उन भावों में आकर्षण है ,
नारी का मन है सुन्दरतम !
नारी को मत यूँ करो नग्न !
…………………………..
श्रंगारिक रचना एक मात्र ,
कवियों का कर्म न रह जाये ,
नख-शिख वर्णन में डूब कहीं ,
न नारी -गरिमा मिट जाये ,
मत करना ऐसा कभी यत्न !
नारी को मत यूँ करो नग्न !

शिखा कौशिक ‘नूतन’

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