Menu
blogid : 12171 postid : 581606

वैराग्य या पलायन -कहानी

! अब लिखो बिना डरे !
! अब लिखो बिना डरे !
  • 580 Posts
  • 1343 Comments

वैराग्य या पलायन -कहानी


भव्य  क्षुल्लिका   दीक्षा   समारोह   का निमंत्रण पत्र मेरे हाथ में था और मेरा ह्रदय रो रहा था .यूँ ही नहीं पुख्ता वजह थी मेरे पास .मैं जानती थी जो दीक्षा लेने जा रही थी वो यूँ ही वैराग्य के पथ पर अग्रसर नहीं हो गयी .जिस संसार को आज वो विलासिता का रागमहल बताकर संयम पथ पर अग्रसर हो रही थी उसे आठ वर्ष पूर्व पा लेने ले लिए कितनी लालायित थी .अपने जीवन में इन्द्रधनुष के सातों रंग भर लेना चाहती थी .कितना उत्साह था उसमे जीवन को लेकर .हर परीक्षा में सबसे ज्यादा अंक प्राप्त कर लेने की प्रतिस्पर्धा और सांवले रंग रूप की होकर भी चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक ..सुन्दर दिखने की ललक भी थी उसमे छिपकर आईने में कई बार निहारती थी खुद को ,फिर एकाएक वैराग्य कहाँ से उदित हो गया उसके अंतर्मन में ?-”ये वैराग्य ही है या जीवन  के संघर्षों से पलायन ?” -मैंने बेबाक होकर पूछा था स्वाति से .स्वाति से साध्वी बनने वाली मेरी सखी कोई उत्तर नहीं दे पाई थी .दे भी कैसे पाती ?मुझे पागल नहीं बना सकती थी वो .होता होगा किन्हीं के ह्रदय में वैराग्य का भाव पर मेरी सखी के ह्रदय में बहुत कोमल भावों की कलियाँ थी जो चटकना चाहती थी ,सुगंध बिखेरना चाहती थी ,किसी के ह्रदय में अपने प्रति प्रेम का दीपक जलता देखना चाहती थी और चाहती थी चूम लेना जन्म देकर किसी शिशु का भाल फिर…फिर क्यूँ मसल डाली वैराग्य के पर्दे में छिपकर अपने कोमल भावों की कलियाँ ?   ये मेरे लिए जानना  बहुत  जरूरी  था  शायद  श्वास  लेने  से  भी  ज्यादा  महत्वपूर्ण .कस्बे के इतिहास में स्वर्णिम दिन कहे जाने वाले दीक्षा समारोह के दिवस से पूर्व के दिन जिन कार्यक्रमों का आयोजन किया गया वो मानों एक    कुंवारी  लड़की के गुलाबी सपनों को आग में जलाने जैसा था .”अद्भुत पल ‘कहकर दीक्षा पथ पर चल पड़ी मेरी सखी की हल्दी व् बाण रस्म सब किये गए और  उस पर सबसे वीभत्स था महिला संगीत के नाम पर समाज की अन्य युवतियों द्वारा फ़िल्मी गीतों पर मस्त  होकर  नृत्य करना . स्वाति की मम्मी इस आयोजन में शामिल नहीं हुई वो घर में एक कमरे में बैठी आंसू बहा रही थी  .  मन  में आया   कि चीखकर  कहूँ   ”बंद करो ये सब…यदि मेरी सखी वैराग्य को ह्रदय से धारण कर चुकी है  तब  ऐसे  आयोजनों  को कर उसकी  कामनाओं  को शांत  करने  की आवश्यकता  ही  क्या  है  ?   …पर चीख  पाना  तो दूर  मेरे  होंठ तो हिले तक नहीं थे .दीक्षा वाले दिन मैंने रथ पर बैठकर कस्बे  में  भ्रमण   करती  अपनी सखी की  आँखों में देख लिया था वो विद्रोही भाव जिसे पूरा समाज वैराग्य का नाम  देकर पूज रहा था मेरी सखी के चरणों को …पर मेरी सखी तो चुनौती दे रही थी पूरे समाज को और समारोह में उपस्थित विधायक ,राज्यमंत्री ,ऊँचें रुतबे वाले धनी परिवारों को ये कहकर की  -” बहू बनकर आती तो प्रताड़ना सहती …लाखों का दहेज़ भी लाती तब भी तानों  के कोड़ों  बरसाए जाते और आज अपनी अभिलाषाओं -आकांक्षाओं  को कुचल कर साध्वी बनने जा रही हूँ तो चरण-स्पर्श की होड़ लगी है .रूपये लुटाये जा रहे हैं .मैंने  अपनी बड़ी बहन के साथ हुए अन्यायों ,ससुरालियों द्वारा किये गए अत्याचारों से यही सबक लिया है की -अपनी इच्छाओं -सपनों को रौंदकर वैराग्य पथ पर बढ़ चलो . दीक्षा -पथ में आई हर अड़चन   पार करने में मैं  जो  नहीं विचलित  हुई  उसके  पीछे  दीदी  के ससुरालियों द्वारा किये गए मेरे माता-पिता  के अपमान  के प्रति  मेरा  रोष  ही  था जिसने  मुझे मेरे संकल्प  से डिगने  ही  नहीं दिया  .देखो  मेहँदी  रचकर  ,गोद  भराई  कराकर  मैं भी दुल्हन  बनी  हूँ पर केवल  इन  रस्मों-रिवाजों का परिहास उड़ने के लिए  .दो  कौड़ी  की औकात  नहीं है इस  समाज में लड़की  की पर वाही  जब  साध्वी बनने चली  तब ”हमारी  लाडली  बिटिया  ”  ”हमारी  श्रद्धेय  बहन ”  लिख  लिख  कर सड़कों  पर बैनर  लगाये  गए हैं .मेरे केश-लोचन  मनो  चुनौती हैं इसी  घटिया  समाज को -..लो  नुन्च्वा  दिए  ये बाल भी अब कैसे घसीटोगे केश पकड़कर मुझे बहू के रूप में ?युवतियां जो यहाँ मेरा तमाशा देखने श्रद्धालुओं की भीड़ में बैठी हैं वो भी मेरे मार्ग का अनुसरण कर अपने माता-पिता को लड़के  वालों  के आगे अपमानित  होने  से बचा  सकती  हैं .”…और भी न जाने   क्या क्या था मेरी सखी के दिल में उस समय पर वैराग्य था ये मैं नहीं कह  सकती  . मैं कतई  सहमत  नहीं थी जीवन  संघर्षों  से इस तरह   पलायन करने से पर वो अपना  पथ चुन  चुकी  थी .दीक्षा के संस्कार  पूर्ण  हो  चुके  थे .अब मेरी सखी के मुख पर प्रतिशोध   की पराकाष्ठा  पर पहुंचकर शांति   के अर्णव में छलांग लगा देने के भाव दिख रहे थे .वो जन जन के कल्याण के लिए तो नग्न पग चल पड़ी थी पर क्या अपने सपनों को मसलकर कोई किसी के ह्रदय में आशा  के दीप जला सकता है ?जो स्वयं परिस्थितियों की कुटिलता से घबराकर पलायन कर  जाये वो समाज को क्या सन्मार्ग के पथ पर चला पायेगा ?ये प्रश्न मेरे ह्रदय में उस दिन से आज तक जिंदा बारूद की भांति धधक रहे हैं …

SHIKHA KAUSHIK ‘NUTAN’

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply