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साकेत कहाँ साकेत रहा जिसमे स्नेही तात नहीं !

! अब लिखो बिना डरे !
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हे अनुज मेरे ! मेरे लक्ष्मण ! एक व्यथा ह्रदय को साल रही ,
साकेत कहाँ साकेत रहा जिसमे स्नेही तात नहीं !
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जब चला था वचन निभाने मैं कितने थे व्यथित पितु मेरे !
एक पल सोचा था रुक जाऊँ पर धर्म का संकट था घेरे !
रघुकुल की रीत निभाना ही उस वक्त लगा था मुझे सही !
साकेत कहाँ साकेत रहा जिसमे स्नेही तात नहीं !
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माँ ने बतलाया था मुझको पितु करते कितना स्नेह हमें !
ले गोद हमें हर्षित होते जब हम सब थे नन्हे-मुन्ने !
अब तात के दर्शन न होंगे उर फट जाता है सोच यही !
साकेत कहाँ साकेत रहा जिसमे स्नेही तात नहीं !
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स्मरण तुम्हें होगा लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र पधारे थे !
जाने को दे दी थी आज्ञा पर चिंतित तात हमारे थे !
संकट से घिरे देख हमको नयनों से अश्रुधार बही !
साकेत कहाँ साकेत रहा जिसमे स्नेही तात नहीं !
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कर्तव्य ज्येष्ठ संतान का है दे अग्नि पितृ-चिता को वो !
पर राम अभागा कितना है पितृ-ऋण से उऋण न जो !
हूक सी उठती है उर में जाती न मुझसे हाय सही !!
साकेत कहाँ साकेत रहा जिसमे स्नेही तात नहीं !

शिखा कौशिक ‘नूतन’

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