! अब लिखो बिना डरे !
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जीवन के संध्या-काल में ,
बैठी हूँ लेकर यादों का जंग लगा बक्सा ,
खोलते ही खनक उठे
बचपन की टूटी चूड़ियों के टुकड़े ,
और बिखर गए पिता के घर से
विदाई के समय बहे
आंसुओं की माला के मोती !
प्रियतम के प्रेम की चटक लाल
साड़ी कितनी सिकुड़ गयी ,
और ये नन्हें-मुन्नों के छोटे छोटे खिलौने ,
उनकी मुस्कराहट के
छन-छन बजते घुंघरू ,
इधर कोने में रखा है
बेटे के सेहरे और बहू के सुहाग वाले जोड़े की
गुलाबी महक वाली तस्वीरें !
कितना कुछ इस एक ज़िंदगी
के बक्से में रखा है संभालकर ,
दिल में एक अजीब सी हलचल हुई
जिसने तन को ख़ुशी की ठंडक
व् गम की तपिश से
रोमांचित कर डाला !
शिखा कौशिक ‘नूतन’
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