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शिक्षक एमएलसी चुनाव और प्रक्रिया के तरीके

Education in the hand of a Businessman
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उत्तर प्रदेश राज्य में एमएलसी के आठ पद शिक्षक एमएलसी के लिए बचा कर रखे जाते हैं। 1. बरेली-मुरादाबाद खण्ड शिक्षक, 2. लखनऊ खण्ड शिक्षक, 3. वाराणसी खण्ड शिक्षक, 4. मेरठ खण्ड शिक्षक, 5. आगरा-अलीगढ़ खण्ड शिक्षक, 6. गोरखपुर-अयोध्या खण्ड शिक्षक, 7. कानपुर खण्ड शिक्षक, 8. प्रयागराज-झाँसी खण्ड शिक्षक। इस चुनाव की अच्छी बात यह है कि यहाँ पर केवल शिक्षक ही मतदान कर सकते हैं।

 

 

प्रत्‍याशी के रूप में कौन नामांकन कर सकता है, इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। क्या प्रत्‍याशी भी पूर्ण रूपेण शिक्षक ही होना चाहिए या कोई भी? जहाँ तक मेरा मानना है कि अगर यह चुनाव विधान परिषद में शिक्षक नेतृत्व की हिस्सेदारी को देखते हुए कराया जाता है तो उम्मीदवार का तत्कालीन शिक्षक (कम से कम दस वर्ष के अनुभव के साथ) होना अनिवार्य होना चाहिए। परन्तु यह इस चर्चा का विषय नहीं है।

 

 

विषय यह है कि क्यों एक शिक्षित समाज शत प्रतिशत मत नही बनवा पाता है? या क्यों एक ऐसे चुनावी प्रक्रिया में जहाँ सभी मतदाता उच्च शिक्षित हैं वहाँ पर शत प्रतिशत मतदान नही हो पाता है? इस विषय पर जाने से पहले उस व्‍यवस्‍था पर बात कर लेते हैं जिससे मतदाता सूची में नाम चढ़ता है। हर शिक्षक को एक प्रपत्र निर्वाचक रजिस्ट्रीकरण अधिकारी के नाम भरना होता है (प्ररूप 19) जो कि दो पन्नों का होता है और साथ में एक और प्रपत्र भरना होता है जिसपे उस विद्यालय का निदेशक अपना हस्ताक्षर करता है जहाँ से अध्यापक सम्बन्ध रखता है। एक फ़ोटो और एक सरकारी पहचान पत्र के साथ ये दोनों प्रपत्र सम्बंधित कार्यालय में जमा कर देना होता है।

 

 

सभी शिक्षकों का नाम मतदाता सूची में चढ़वाने की जिम्मेदारी वैसे तो प्रशासन की होती होगी परन्तु आम तौर पर इस जिम्मेदारी का निर्वहन चुनाव लड़ने वाला प्रत्याशी ही करता नजर आता है। जिस उम्मीदवार के परिचय में जो शिक्षक आते हैं उनका प्रपत्र भरा जाता है और उनका नाम भी मतदाता सूची में डल जाता है परन्तु क्या सिर्फ इतना ही होना चाहिए? अगर उम्मीदवार के तरफ से ही मत बनवाने की सारी कोशिशें चलेंगी तो मतदान का प्रभावित होना भी तय हैं, परन्तु चिन्ता यह है कि अगर प्रत्याशी की तरफ से मत बनवाने का प्रयास न किया जाय तो शिक्षकों का मत बनेगा कैसे ?

 

 

प्रशासन की तरफ से इस मतदान के लिए की जाने वाले जन जागरूकता के कार्यक्रम मुँह चिढ़ाते हैं। मैं कई अध्यापकों से मिला जिन्हें इस प्रकार के किसी चुनावी प्रक्रिया के बारे में जानकारी तक नहीं थी। कुछ अध्यापकों की परेशानी यह थी कि उनके प्रपत्र पर निदेशक महोदय हस्ताक्षर करने के लिए तैयार नहीं हैं। वहीं कुछ विद्यालय ऐसे भी मिले जहाँ पर जानकारी होते हुए भी साफ साफ निर्देश थे की कोई यह प्रपत्र नही भरेगा। जो अध्यापक प्रपत्र भर कर निदेशक के हस्ताक्षर कराने में सफल भी हो गयें उनकी समस्या अलग थी, वह ये की अब इन प्रपत्रों को जमा कहाँ करना है? और अगर जमा करने में भी सफल हो गयें तो क्या उनका मत बन रहा है या नही? इस प्रकार के और भी प्रश्नों के साथ अध्यापक निरुत्तर खड़ा है और प्रशासन मौन।

 

 

सबसे खास बात यह है कि इस चुनाव में मतदाता के दो स्तर हैं, पहला सरकारी शिक्षक और दूसरा निजी शिक्षक। जहाँ तक मेरा मानना है सरकारी शिक्षकों का नाम मतदाता सूची में डालने में कोई खास समस्या नहींं होती है। इसके दो मुख्य कारण हैं, पहला की सरकारी अध्यापक अधिकतर उसी क्षेत्र से होता है जहांं पर वो कार्यरत है और दूसरा की सरकारी क्षेत्र में कार्यरत अध्यापक पूर्ण रूप से वैध होता है। वहीं दूसरी तरफ निजी संस्थानों में कार्यरत अध्यापक दूसरे शहरों से आये होते हैं और उनके नौकरी की भी कोई ठोस हिसाब नहींं होती है। ऐसी परिस्थिति में इन अध्यापकों से यह अपेक्षा करना कि ये स्थानीय चुनावों में ज्यादा हस्तक्षेप करेंगे या फिर स्थानीय चुनावों के लिए अपनी नौकरी पर बन आने देंगे, बचकाना ही है। एक तरफ जहाँ निजी विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों के ऊपर हमेशा निलम्बन की तलवार लटकती रहती है तो दूसरी तरफ सरकारी अध्यापक इस चिन्ता से मुक्त होते हैं।

 

 

यह तो रही कार्य की प्रकृति की बात परन्तु एक बात जो बीच मे ही छूट गई वो ये की अगर शिक्षक स्थानीय चुनावों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहता है तो इससे उसकी नौकरी जाने का खतरा क्यों है? निजी संस्थानों में कार्यरत शिक्षक मृत्यु से उतना नहींं डरते जितना उन्हें नौकरी जाने का डर सताता है। आखिर नौकरी कर के जो पैसा मिल रहा है उसी से परिवार की जरूरतें पूरी हो रही हैं। परन्तु इस अवस्था को अपने ऊपर इतना भी हावी नही होने देना चाहिए कि आप कुछ नया कर ही न सकें। आज निजी विद्यालयों का शिक्षक कुछ भी नया करने से डरता है क्योंकि उसे लगता है कि अगर प्रबंधक को पता चल गया तो उसकी नौकरी चली जायेगी, भले ही ऐसा न हो, पर डर तो रहता ही है।
ऐसा क्यों है? क्यों निजी प्रबंधकों के लिए किसी को नौकरी से निकाल देना इतना आसान है?

 

 

या तो ये अध्यापक मानक पूरे नही करते हैं या इन्हें पढ़ाना नही आता है। अगर ऐसा है तो इस तरह के अध्यापकों, जिनके पास उचित वैधता नही है या जो साक्षात्कार के समय तकनीकी प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाते हैं, को भर्ती ही क्यों किया जाता है? क्या ये जानबूझकर किया जाता है ताकि निजी प्रबंधकों को कम पैसे में ऐसा आदमी मिल जाय जो कि जीवन भर केवल अपनी नौकरी बचाने के जद्दोजहद में लगा रहे?
मेरा मानना है कि इस तरह की भर्ती न सिर्फ उचित उम्मीदवार के साथ धोखा है बल्कि उन छात्रों के साथ भी धोखा है जो इन निजी संस्थानों में भारी भरकम रकम देकर पढ़ने आते हैं। आप किसी भी नजदीकी निजी तकनीकी संस्थान में जाकर शुल्क की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं और अगर आप गुप्त रूप से वहाँ दिए जा रहे सुविधाओं की जानकारी लेंगे तो आप हैरत में पड़ जायेंगे। परन्तु इस चर्चा का विषय ये भी नहींं है।

 

 

 

विषय यह है कि जहाँ तक मैंने देखा है सरकारी अध्यापकों के मत या तो पहले से बने हुए हैं या नए मत आसानी से बन जा रहे हैं परन्तु निजी विद्यालय के अध्यापक अपने आपको अलग थलग पा रहे हैं। यह मजबूरी उन अध्यापकों की है, या निजी प्रबंध तंत्र की है, या शासन की है, या प्रशासन की है, ये सोचने का विषय है। अगर शत प्रतिशत मत नही बना तो ये नाकामी पूरी तरह से प्रशासन की ही होगी, इसमें कोई दो राय नहीं है। मैं नही मान सकता कि जिस सरकार को जनता के एक एक पैसे का हिसाब रहता है वो इस बात से अनजान है कि उसके किस क्षेत्र में कितने विद्यालय हैं और किस विद्यालय में कितने शिक्षक।

 

 

 

 

नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं। इनका संस्‍थान से कोई लेना-देना नहीं है। 

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