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शिक्षा का अर्थ भुलाकर – धन का संयोजन

Education in the hand of a Businessman
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मंदिर वैदिक काल में एक ऐसी जगह होती थी जहाँ समाज का सबसे बुद्धिमान ब्यक्ति रहता था एवं वो उस समाज की गतिविधियों को देखते हुए आगे की रणनीति तय करता था। अपने अपने समाज की उन्नति के लिए लोग मन्दिरों में इच्छानुसार दान देते थें ताकि उस विद्वान को समाज के हित हेतु किये जा रहे प्रयासों में कोई दिक्कत न आये। अपने आप को चक्रवर्ती सम्राट समझने वाला ब्यक्ति भी विद्वानों के आगे सर झुकाता था एवं उनकी इच्छा के अनुसार अपने राज्य में शिक्षा एवं अन्य कार्यों की योजना बनाता था। यह वह समय था जब भारतवर्ष को विश्वगुरु कहा जाता था, उस समय की शिक्षा ब्यवस्था गुरुओं के हाथ में हुआ करती थी। जो क्षेत्र किसी गुरु के आश्रम के अधीन आते थें उस क्षेत्र में वहाँ का शासक भी बिना अनुमति कदम नहीं रखता था। एक आश्रम की ब्यवस्था ऐसी होती थी की उसमें आने वाला विद्यार्थी अपने पूरे विद्यार्थी जीवन में रहने, खाने-पीने, पढने की सामग्री, अध्ययन की बाकि जरूरतों की चिंता नहीं करता था, उसका सारा समय गुरु की आज्ञा पालन तथा अध्ययन में ही गुजरता था। विद्यार्थी जीवन में शायद ही किसी बच्चे को इस बात का भान हो पाता होगा की उसके परिवार की आय क्या है, उसके पिता क्या काम करते हैं, वो किस वर्ग से आता है, या कुछ और। शिक्षा, शिक्षा की विधि, शिक्षा का स्तर, शिक्षा की उपयोगिता, तथा शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात शिक्षार्थी का भविष्य, उस समय ये सब चिन्ता के कारण नहीं थें क्योंकि उस समय शिक्षा जबर्दस्ती की नहीं थी, वह इसलिए नहीं थी किसी को उसका प्रमाण दिखाना पड़े, वह इसलिये भी नहीं थी जिससे कोई रोजगार की संभावनाएं तलाशे, शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य मानव समाज की उन्नति था।

जिस तरह से समाज को बाजारवाद ने घेरा एवं धन की महत्ता बढ़ने लगी, हमारे मंदिरों ने भी जमा हुए धन का सही उपयोग करना धीरे धीरे कम कर दिया और यहीं से शुरू हुई विश्वगुरु के सांस्कृतिक पतन की कहानी। कुछ विद्वानों ने धन को भविष्य के लिए इकठ्ठा करने की सलाह दी – जो की एक तरह से सही भी थी – परन्तु इसके वजह से उन्होंने तत्काल के विद्यार्थियों की कुछ सुविधाएँ कम कर दीं। कुछ विद्वानों ने मंदिरों को और बड़ा, और आरामदायक, और शुरक्षित करने की सलाह दी जिसकी वजह से ब्राह्मणों के अंदर धन इकट्ठा करने की लालसा धीरे धीरे बढ़ने लगी और वे अब दान में आये हुए धन को इकठ्ठा करने में लग गए। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जहाँ धन होगा वहाँ द्वेष और बाकि विकार स्वतः उत्पन्न हो जायेंगे। धन के अधीक इकठ्ठा कर लेने की इच्छा ने धीरे धीरे हमारे आश्रम ब्यवस्था को कमजोर कर दिया, अब इन आश्रमों में विद्यार्थियों से कई तरह के कार्य कराये जाने लगे एवं कार्य न कर पाने की स्तिथि में उन्हें निष्कासित किया जाने लगा, कुछ समयोपरान्त शिक्षार्थियों को उनके उपयोग की वस्तुओं के लिए स्वयँ ब्यवस्था का सुझाव दिया जाने लगा एवं आगे चलकर आश्रम में दाखिला पाने के लिए धन लेने की मांग भी शुरू कर दी गई, जिसने जन्म दिया आज की शिक्षा ब्यवस्था को। उधर दूसरी तरफ धन की अधिकता ने विद्वानों के बीच स्वामित्व के जंग की शुरुआत करा दी, अब वह समय आ गया था जब विद्वान शिक्षा का अर्थ भुलाकर धन का संयोजन करने में लग गए थें।

एक तरफ मंदिरों द्वारा आसानी से धन कमाया जाने लगा तो वहीँ दूसरी तरफ इस बात की चिंता भी सताने लगी की कहीं आगे चलकर कमाई का यह स्रोत कम न पड़ जाये और तभी आरम्भ हुई मंदिरों में महंत, पीठाधीश्वर, मंडलेश्वर बनने की दौड़। हर कोई अपना गद्दा तय कर लेना चाहता था ताकि आय के इस सरल स्रोत पर कोई और न हाथ मार पाये। सब कुछ ठीक चलता रहे और लोग मंदिरों में दान देते रहें इसके लिए शुरू किया गया आडम्बर और चलने लगे पाखण्ड के खेल। हर रोज इन ब्यापारियों ने नए नए तरीके निकालें, कभी नया व्रत, कभी नया अनुष्ठान, तो कभी नए देवी देवता, कभी प्रकोप, कभी साया, तो कभी भुत प्रेत। बात इतनी बढ़ गई की इनके द्वारा सत्ता पे भी नियंत्रण पा लिया गया और हिस्सेदारी तय कर ली गयी ताकि किसी भी कीमत पर यह ब्यवसाय बंद न हो।

इन सब में कही दूर, बहुत ही पीछे छूट गयी भारत की वो गौरवशाली गुरु शिष्य परंपरा। भारतीय संस्कृति कही मरणासन्न पड़ी हुई है – मरती इसलिए नहीं क्योंकि इसे अमरत्व की प्राप्ति है, और जीती इसलिए नहीं क्यों इसके अपने लोभी हो गए हैं – जिसे धन की लालसा में पड़े हुए विद्वानों ने बेच दिया। अब विद्वान केवल राजसत्ता की चापलूसी करता है ताकि उसे धन मिले, अब विद्वानों को यश भी सत्ता के गलियारे से ही मिलता है। भारत का विद्यार्थी अब धन लोलुप ब्यावसायियों के हाथों में पड़ने को मजबूर है और साथ ही भारत का शिक्षक भी, क्योंकि भारतीय शिक्षा अब केवल पूंजीवाद का मकसद सिद्ध करने में लगी हुई है और भारत के मंदिर धन बटोरने में लगे हुए हैं।

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