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आर्य हिन्दू

मैं कहता आंखन देखी
मैं कहता आंखन देखी
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हिन्दू आज संकट में है, कौन इसे समझाए।
चहुंदिशि से प्रहार सुनो, यह दिन-दिन भटका जाए।।1
बहुमत में होते हुए भी, कोई नहीं इसके अधिकार।
सुधारक, संगठन पीछे पड़े, पीछे पड़ी सरकार।।2
कई सदी से भ्रमित यह, प्रताड़ित घातक ढंग से।
बेहोशी मंे दिखलाई पड़े नहीं, अन्यथा आह उभरे हर अंग से।।3
सेक्युलरवाद महामारी ने, हिन्दू को किया बर्बाद।
समझ, विवेक सब चले गए, चली गई भौतिक जायदाद।।4
अपनी रक्षा की चिन्ता छोड़, चिन्तित अन्यों की रक्षा।
स्वदेशी को भूला दिया है, भ्रामक विदेशी शिक्षा।।5
विज्ञान व आधुनिकता के नाम पर, बस हिन्दू का विनाश।
सेमेटिक नामी सब पीछे पड़े, पाखण्ड-ढोंग बकवास।।6
हीनभावना रोम-रोम भरी, स्वयं का टूटा विश्वास।
आर्यावत्र्त भारत कितना महान, रहा नहीं अहसास।।7
अपने हीरे को छोड़कर, पर के कूड़े की पकड़।
समझ नहीं आती समझाने से, नख-शिख भरी अंकड़।।8
अपना स्वर्णिम उज्जड़ लगे, पर का कीचड़ जीवनाधार।
कैसी मति हिन्दू की फिरी, भूला दिया सर्व सार।।9
अन्धानुकरण पाखण्ड-ढोंग का, लुटा रहा निज मर्यादा।
समझाने से समझ आती नहीं, कम से कम या ज्यादा।।10
शााश्वत, सनातन को छोड़कर, क्षणिक पाश्चात्य का मोह।
घाटे का सौदा बना, आर्य सनातन संस्कृति बिछोह।।11
सभ्यता, संस्कृति निज त्यागकर, अपसंस्कृति को अपनाया।
भाषा, भूषा, भैषज, भूमि; सृजनात्मक अपना बतलाया।।12
सर्वत्र हँसी के पात्र बने, अन्यों की करके नकल।
बेढंगी हमारी चाल हुई, भौण्डी हुई हैं शक्ल।।13
सबको निज मूल्यों पर गर्व है, हिन्दू का अन्यत्र पलायन।
नीति व दर्शन पराए प्रिय, पराए हुए सब मन।।14
निज संस्कृति को उज्जड़ कहे, हिन्दू की यह पहचान।
कुल्हाड़ी अपने ही पैरों पर, स्वप्रगति में व्यवधान।।15
पिछलग्गूपन का रोग लगा, हिन्दू निजता से दूर।
भ्रमित हुए दिशा व दर्शन, भटके अज्ञान भरपूर।।16
पश्चिमी कबाड़े पर अंध श्रद्धा, स्व अमृत पर सन्देह।
राष्ट्र दुश्मनों से हिन्दू का, बढ़ता जा रहा नेह।।17
जमीनी सब पिछड़ा लगे, आयातित विज्ञान से भरा।
जानबूझकर मूढता कर रहा, सदैव से जो सुनहरा।।18
हिन्दुओं के जितने भी नेता सुनो, सुधारक, धर्मगुरु, योगी।
कायरता की सीख दे रहे, भगौड़ा, पलायनवादी, वियोगी।।19
केवल अहिंसा के पाठ ने, हिन्दुओं का किया विनाश।
प्रतिशोध अग्नि पर पानी फिरा, नहीं वीरता को अवकाश।20
नेता भी हमारे नकारा हुए, पिछले काफी काल से।
असहाय हम होते ही गए, नहीं निकले हीनता जाल से।।21
राष्ट्रवाद व स्वदेशी का, मन्त्र हिन्दू ने दिया भूला।
समानता, समन्वय के चक्कड़ पड़ा, मूच्र्छित सेवा के झूला।।22
नाम हिन्दू का जो ‘आर्य’ था, वह भी खो दी पहचान।
विदेशी आततायियों के चक्कर पड़ा, बनकर मूढ़, नादान।।23
पुरुषार्थ को पूरा छोड़ दिया, हिन्दू का चला गया सब मान।
सर्वत्र हँसी का पात्र बनकर, बना अवगुणों की खान।।24
जागो हिन्दू-जागा हिन्दू, निज पौरुष को पहचान।
परमार्थी से पहले स्वार्थी बनकर, बना आर्यावत्र्त को महान।।25
आचार्य (डा॰) शीलक राम
वैदिक योगशाला

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