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आदर्श व यथार्थ

मैं कहता आंखन देखी
मैं कहता आंखन देखी
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चिराग जलाने की कह रहे हैं।
हर दिशा में तुफान बह रहे हैं।
आदर्श व यथार्थ विपरीत,
बस जमाने के दुख सह रहे हैं।।

 

 

 

सफल हो उपदेश बन जाते।
महाज्ञानी खुद को कहलवाते।
मामूली कष्ट पर आगबबूला,
ऐसे ही आजकल प्रतिष्ठा पाते।।

 

 

 

दीये में नहीं यहां तेल व बाती।
माचिस नहीं जो इसे जलाती।
घुप अंधेरे को कैसे मिटाऊं,
फूंक मारने लगी आपाधापी।।

 

 

 

 

 

नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं, इसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी हैं।

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