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बूढ़ा-सजर..

मन-दर्पण
मन-दर्पण
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नितांत अकेला!

बंद कमरे की खिड़की से झांकता

पहरों पहर तकता रहता है वो

आंगन में खड़े उस तनहा बूढ़े दरख्त को

देखता है शायद कहीं

उसमे वो अपने अक्स को!

है देखता रहता एकटक

उस उजड़े सूखे दरख्त को

जिसकी सूनी डालियाँ

कभी आबाद रहा करती थी

कुछ परिंदों की आहटों से

जिन्हें लेकर अपने साये में

भीगता तेज बरसातो में

जलता धूप के अंगारों में

ठिठुरता सर्द रातो में

तिनका-तिनका सहेज

जिनके सपनों के आशियाँ को

दिया था एक आधार

रहा झेलता वो हर मौसम की मार

पर ना कभी उफ्फ की ना कोई आह भरी

देता ही रहा सदा वो

बदले में ना उसकी कोई चाह रही

बस दिल ही दिल में कहीं

एक ख्वाब सजाये बैठा था

कि एक दिन जब वो बूढा-जर्जर हो जायेगा

पत्ता-पत्ता उसकी शाखों से झर जायेगा

उम्र की उस तन्हा शामो में भी

आबाद रहा करेंगी उसकी सूनी डालियाँ

उन परिंदों से..

पर उसके हंसी ख्वाबों की परछाईयां

वक्त के अंधेरों में एक दिन गुम हो गयी

जब उम्र की ढलती शामो में एक सुबह

सूना कर उसका आंगन

बसाने अपना एक नया आशियाँ

अपने ख्वाहिशों के आसमा में

एक-एक कर उड़ गए वो परिंदे

उसकी डालियों से

और बूढी-बेबस आँखे

हैरान सी देखती रह गयी..

समय की आंधियों में

उसके ख्वाबो का आशियाँ

तिनका-तिनका कर बिखर गया था

टूटे-बिखरे आशियाँ में शेष रह गए थे तो बस

उसके टूटे ख्वाबो के कुछ तिनके

और गुजरे लम्हों की की यादे

जिन्हें संजोये सूनी आँखों में

बेसबब इंतजार लिये

उन परिंदों के लौट आने की

तकता रहता है राह

हर दिन हर पहर

वो तन्हा बूढा सजर.

शिल्पा भारतीय “अभिव्यक्ति”

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