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शायद फिर कोई बस्ती है बसने वाली यहाँ!

मन-दर्पण
मन-दर्पण
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शाखों से जुदा पत्ते

तनों से जुदा शाखें

क्षत-विक्षत बिखरी चहुंओर

ये तरुवर की लाशें

टूटे घोसलों के बिखरे तिनके

तिनको में बिखरा आशियाँ

हाय ये बेघर परिंदे

अब जाये कहाँ?

है कौन यहाँ आया

किसने की ये तबाही

करते करुण क्रंदन

बर्बादी के ये मंजर दे रहे गवाही

लाशों के इन टुकड़ों से

लिखने विकास की एक नयी दास्ताँ

टूटे बिखरे आशियानो के तिनको पर

शायद  फिर कोई इंसानी बस्ती है बसने वाली यहाँ!

शिल्पाभारतीय “अभिव्यक्ति”

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