vatsalya
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धोखा खूब दिया है खुद को झूठे-मूठे किस्सों से
याद मगर जब करने बैठे याद आई है बातें सच
कच्चे रिश्ते,बासी चाहत और अधूरा अपनापन
मेरे हिस्से में आई है,ऐसी भी सौगातें सच
कैसे जतलायें संस्पर्शों की भाषा का मूक दर्शन
नेह का चन्दन,मन का वंदन,धमनी में मिश्री घोल सा स्पंदन
पीर ढोने के लिए अभिशप्त है,सामने हमारे है कुछ मजबूरियाँ
ढह गए है स्वप्न के ऊँचे किले,हो चुका है आज मन मरुथल मेरा
धुंध है तुम आस का दीपक जलाओं,मन व्यथित है राह कोई तुम दिखाओं
थक चुकी हूँ आज जीवन पथ पर,सिर्फ तुम केवल तुम ही हो संबल मेरा
जन्मीं हूँ मैं तुमसे अथवा हो तुम मेरी रचना,कैसे हो सकती हो तुम मेरी रचना
कि सृजित होती रही जब मैं ही तुमसे,इस रिश्ते को क्या नाम दूँ
यह एक अलौकिक अर्पण जो देता है मुझे जीवन
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