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नसीब – बदनसीब !!!

आप की आवाज
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जनवरी का महीना हमेशा ठंड से भरा हुआ होता हैं, लेकिन ये 2015 की जनवरी इस बार कुछ अलग निकली और इसको अलग बनाया एक साल बाद फिर से आये दिल्ली के विधानसभा चुनावों ने | दिल्ली की ठंड को राजनीतक गर्मी ने इस बार इस तरह रफूचक्कर किया की दिल्ली की जनता को इस बार ठंड तक का अहसास नही हुआ | माहौल गर्म हो भी क्या न ? क्योकि इस बार दिल्ली का दंगल कुछ अलग ही हैं | मैदानी पार्टियाँ एक दूसरे पर आरोप लगा कर ये साबित करने में लगी हुई हैं की हम दिल्ली के हमदर्द हैं | लेकिन माहौल जब और भी गर्म और रोचक हो जाता हैं जब सभी पार्टियाँ अपनी पुरी ताकत झोंक देती हैं साथ ही साथ अपने -अपने स्टार प्रचारकों को मैंदान में उतरती हैं | फिर शुरु होता हैं, अराजक, धोकेबाज़, भगोड़ा, धरनेबाज और बदनसीब जैसे शब्दों का युद्ध | लेकिन सवाल यह हैं कि क्या देश का नसीब किसी व्यक्ति विशेष से जुड़ा होता हैं ? अगर होता हैं तो फिर क्या दिल्ली की एक साल की बदनसीबी क्या केजरीवाल के बदनसीब से जुड़ी हुई थी ? अगर दिल्ली की बदनसीबी केजरीवाल से जुड़ी हुई थी, तो दिल्ली की जनता को बदनसीब को लाने की जरूरत क्या हैं? तो फिर इस देश के प्रधानमंत्री का कहना कहाँ गलत हैं कि अगर मेरे नसीब से देश की जनता की ज़ेब में कुछ पैसे बचते हैं तो इसमें बुराई क्या हैं ? तो फिर जनता को बदनसीब क्यों चाहिये ? लेकिन इसका फैसला तो दिल्ली के मतदाताऔं को करना हैं कि वो नसीब के साथ हैं या बदनसीब के साथ | इसके साथ ही दिल्ली का भी नसीब तय हो जायेगा कि दिल्ली का नसीब क्या हैं ! अभी यह तय नही हैं की ऊट की करवट बैठेगा इस पता 10 फरवरी को हो जायेगा की दिल्ली को चाहिये क्या नसीब या बदनसीब !

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