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ईश्वर,धर्म,समाज और एक साधू का दर्द!

जब जागो तभी सबेरा
जब जागो तभी सबेरा
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धर्मं का वास्तविक अर्थ क्या  हिन्दू,मुस्लिम , बौद्द, क्रिश्चियन या कुछ और ? जिस तरह धर्मं के नाम  अलग  अलग हैं ठीक उसी तरह इश्वर के नाम भी अलग अलग ,और धर्मं और इश्वर के नाम पर लड़ने वाले क्या धर्मं को पहचानते हैं जानते हैं?

हमारा शास्त्र बड़ा ,हमारा धर्मं बड़ा और हमारे इश्वर बड़े। इसी अहंकार में मनुष्य अपने पुरे जीवन व्यतित करता है । क्या इश्वर अलग अलग धर्मं के लिए अलग अलग होते होंगे? जितनी मान्यता उतने इश्वर ? अगर हर धर्मं के लिए इश्वर अलग अलग हैं तो कितने सारे इश्वर होंगे और ”ईश्वरों” के बिच में भी तो प्रतिस्पर्धा होता होगा? हाँ अगर उनके बिच प्रतिस्पर्धा होता होगा तो मैं बड़ा की तू बड़ा क्या इश्वर सम्मान का इतना बड़ा भूखा और लालची होगा। जहाँ प्रतिस्पर्धा वहाँ हार- जीत निश्चित है ,जहाँ हार -जीत वहां भेदभाव भी निश्चित है। क्या इश्वर इतना ख़राब होगा?क्या इश्वर सम्मान का इतना बड़ा भूखा और लालची होगा की जो मेरी भक्ति ज्यादा करे उसको ज्यादा कृपा करे और जो चम्चा गिरी न करे उसे सजा देंगे नर्क में पहुंचा देंगे? अगर ऐसा है तो प्रकृति भेदभाव क्यूँ नहीं करती ? हिन्दू भी जन्म लेता है और मुस्लिम भी ,इशाई भी मृत्यु पाता है और बौद्ध भी .ऐसा तो नहीं होता को हिन्दू ,मुस्लिम ,बौद्द ,इशाई एक साथ खड़े हो और हिन्दू को ज्यादा धुप मुस्लिम को कम धुप ,इशाई को अँधेरा बौद्द को सामान्य ऐसा तो नहीं करता सब को बरावर मात्रा में देता है प्रकृति तो कभी भेदभाव नहीं करती!

और अगर संपूर्ण ब्रम्हांड का मालिक एक है तो यहाँ इश्वर और धर्मं के नाम पर लड़ाई , झगडा,प्रतिस्पर्धा और भेदभाव का क्या अर्थ? कुछ बेमानी सा नहीं लगता?

सीधा यूँ कहें की हम संप्रदाय को धर्म मान बैठे है। वास्तविक धर्म तो मात्र विवेक है जो हमें अच्छे कर्म के लिए प्रेरित करता है। मानने वाले को हर जगह इश्वर है न मानने वाले को कहीं भी नहीं लेकिन इश्वर अपने को मानने वाले को भी उतना ही प्रेम करता है न मानने वाले को भी वो तो कण कण में है। हर जीव में भी है ,निर्जीव में भी है ,स्त्री के अन्दर भी है, पुरुष के अन्दर भी राजा के अन्दर भी है, भिखारी के अंदर भी चीटी में भी है हाथी में भी। वह किसी के साथ भेद नहीं करता, इश्वर तो निराकार है यत्र तत्र सर्वत्र है . जिसने पुरे ब्रम्हांड को बनाया हम अपने वेवकूफ भरे स्वार्थ के लिये उसी का बंटवारा करते हैं ? उसी के नाम पर ढोंग करते हैं?

हमारा जन्म क्यूँ हुवा और हमारी मृत्यु क्यूँ होती है कब होती है यह हम नहीं जानते। फिर हम कैसे कह सकते हैं की मरने के बाद स्वर्ग जायेंगे या नर्क । जब जन्म लेने के बाद जीवन को जीना नहीं आया तो मृत्यु को क्या समझ पायेंगे?

एक साधू थे जो गाँव से कुछ दुरी पर जंगल के किनारे कुटिया में अकेले रहकर साधना करते ,गाँव के लोग उनके पास जाते उनके दर्शन और आशीर्वाद लेने के लिये पर साधू बाबा किसी को भी आसपास फटकने नहीं देते थे। उनका स्वभाव बहुत उग्र था अगर कोई जिद करके पास आ भी जाये तो उसी के साथ मारपीट करते , गाली देते । साधू के इस तरह के बर्ताव की बजह से सब को लगा की यह आदमी साधू के वेश में कुटिया के अन्दर कुछ गैरकानूनी काम करता है। इसलिए किसी को पास आने नहीं देता। गाँव वालों ने मिलकर पुलिस को संधिग्द होने की जानकारी दी । पुलिस वाले आये उनके साथ भी वही बर्ताव किया ।पुलिस ने कुटिया के अन्दर छान मारा पर कुछ नहीं मिला । पुलिस के साथ किये बुरे बर्ताव के कारण पुलिस साधू को पकड़कर ले गयी । पूछताछ हुई की आखिर इस तरह से लोगों के साथ मारपीट करने का कारण क्या है?

तब साधू का जवाफ था : तभी तो मैं शांति से हूँ। ढेर सारे भक्त शिष्य जुट जाने से गृहस्थ हो जाना होता है। संसार में फंश जाना होता है तब यही लोग अपने से सगे हो जाते हैं उनके रोग ,शोक ,वेदना का अंश लेना होता है। सबको लेकर एक विराट परिवार बन जाता है ।जब इन सब बातों में फंसा रहूँ तो मैं साधना कब करूँगा ? अगर यही सब करना था तो गृहस्थ ही बन जाता ।सच कहूँ तो यहाँ जो लोग आते हैं मुर्ख लोग ही आते हैं वो चाहते हैं साधू बाबा हमें तार देंगे, तुम साधू हो, महात्मा हो तपश्वी हो ,हम तुम्हारी भक्ति करते हैं इसलिए तुम्हारा कर्तव्य है की तुम हमारा दुःख दूर करो और हम बैठे बैठे आराम करेंगे । चोरी करेंगे ,विलाश में डूबे रहेंगे। तुम हमारे ३६ लोक की विपत आपात काट दोगे । हमारे धंदे का फायदा करा दोगे,नौकरी में पदोन्नति करा दोगे .रोग भगा दोगे .बच्चे को परीक्षा में पास करा दोगे ।और न जाने क्या क्या । अगर कुछ उनके मतलब हो गया तो मुझे भगवान का अवतार बता देंगे । इन मूर्खों के कारण मैं अपनी साधना से दूर होता चला जाऊंगा .पुलिस निरुत्तर था । फिर बाबा उस गाँव को छोड़ कर कहीं और चले गये । क्यूँ की उनको इश्वर से जो मिलना था ।

क्यूंकि इश्वर तो अपने अन्दर ही वाश करते हैं उनको जानने के लिये खुद के अन्दर झांकना पड़ता है साध्ना पढता है मन को। बाहर मंदिर ,मस्जिद ,चर्च या गुम्बा के नाम पर लड़ने की कोई जरुरत नहीं है ।

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