Menu
blogid : 5111 postid : 805898

आंगनबाडीःखेत ही बाड को खा रही हैǃ

समय की पुकार
समय की पुकार
  • 43 Posts
  • 22 Comments

केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम जो महिला एवं बाल विकास परियोजना मंत्रालय द्वारा संचालित की जा रही है के तहत महिलाओं एवं नवजात शिशुओं की देखभाल के लिए महत्वाकांक्षी योजना ʺआंगनबाडीʺ नाम से जानी जाती है पूरे देश मे लागू है। इसका लाभ महिलाओं और बच्चों को भले ही न मिल रहा हो लेकिन इसमें लिप्त सभी अधिकारियों और कर्मचारियेां के जेब का विकास अवश्य हो रहा है। वैसे तो इस विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की सूची काफी लंबी है लेकिन हम यहां कुछ उदाहरण देकर इस प्रकार की अनियमितता और धांधली की ओर आपका ध्यान अवश्य आकृष्ट करने का प्रयास कर रहे है।

नियुक्तियों में हेराफेरी–

इस प्रकार की आंगनबाडी केंन्द्रों को संचालित करने के लिए जो नियुक्तियां की जाती हैं वह नियमानुसार न होकर लेन देन और ʺरसूखʺ और पैरवी के द्वारा की जाती हैं। अपने ही विभाग द्वारा बनाये गये पैमानों को ध्वस्त करने के तरीके इन्हे लागू करने वाले ही तोडने का तरीका भी बनाते हैं। सहायिका से लेकर कार्यकत्री तक की नियुक्ति करने का मकसद जहां महिलाओं में जागरूकता पैदा करना ओर बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा की ओर ध्यान देना होता है उसमे यह खयाल रखना होता है कि इस प्रकार की नियुक्तियों में प्रथम वरीयता गांव और उसके पश्चात गरीबी होना चाहिए। लेकिन देखा गया है कि इसमें इन दोनो मापदण्डों का लगातार उल्लंधन होता है। नियमानुसार इन कार्यो के लिए जिन्हे तैनात किया जाता है उनका उस गांव का निवासी होना अनिवार्य है जिस गांव में इनकी नियुकित होनी हे। दूसरा हेाता है कि इनका बीपीएल सूची मे नाम होना चाहिए। तीसरी शर्त होनी चाहिए कि वे आरक्षण का कोटा पूरा करती हों अर्थात् आरक्षित वर्ग की हों। इसका उद्देश्य प्रायः क्षेत्र की गरीब महिलाओं को एक प्रकार से रोजगार देना भी होता है। इस प्रकार की महिलाओं के न मिलने पर ही अनारक्ष्‍िात वर्ग की महिलाओं को लिया जा सकता है। इसके लिए भी यह निर्धारित है कि वे उसी गांव की हों और विधवा हों। अक्सर देखा गया है कि इन सारे का मानदण्डों का उल्लंधन बराबार हो रहा है।
उदाहरण दिया जा सकता है। माननीय प्रधानमंत्री जी के संसदीय जिले वाराणसी के पिण्डरा ब्लाक का । यहां एक महिला जो शादी शुदा है शादी के बाद ससुराल जाती है और दुभाग्यवश उसके पति की मृत्यु हो जाती है और वह विधवा हो जाती है । वह वहां से अपने ननिहाल आती है और फिर वहां से और फिर वहां से अपने मां के मायके आती है। जैसा कि मै पहले कह चुका हूं कि ʺरसूखʺ अौर ʺलेनदेनʺ के बल पर वहां अपने मां के मायके में आंगनबाडी केंन्द्र पर कार्यकत्री के रूप में नियुक्ति कर दी जाती है। मजेदार बात यह है कि यह कार्यकत्री बाकायदे विधवा पेशन भी लेती है जो इसके ननिहाल के पते पर मिलता है। इस प्रकार से सुविधानुसार यह महिला कई गांवों में तरह तरह के फायदे उठा रही है। अतः यह महिला एक साथ ससुराल मायका और मां का मायका तीनों जगह पर उपस्थित है। और विभाग केे नियमों की एसी तैसी करने पर उतारू है। इससे बडी बात यह है कि यह इस विभाग में एक प्रकार से ʺनेतागिरीʺ भीकरती है और परिवार के लाेगों के बल पर वह सब कुछ हासिल कर लेती हैं जो दूसरे कार्यकत्रियेां के लिए मुमकिन नहीं है। क्या इसकी नियुक्ति इसके ससुराल या मायके मे नहीं हो सकती थीॽ यह जहां नियुक्त है वहां दूसरे के हक पर कब्जा जमाये हुये है। इस प्रकार की हेराफेरी और धांधली को यह केवल एक उदाहरण नहीं है बल्कि और भी हैं। जब कभी इसके खिलाफ आवाज उठायी जाती है तो रसूख वाले लोग आवाज उठाने वालों के खिलाफ कुछ भी कर गुजरने पर आमादा हो जाते हैं

पुष्टाहार वितरण में धांधली–

अक्सर समाचारपत्रों मे यह पढने मे मिल जाता है कि अमुक स्थान पर आंगनबाडी केन्द्रो पर वितरित की जाने वाली पुष्टाहार को बाजार में बेचते हुये पकडा गया या अमुक स्थान पर पुष्टाहार को पशुओं को खिलाने के लिए पशुपालको को बेच दिया गया। एसा होता है और धडल्ले से हेाता है। इसको सभी जानते हैं और विभाग के अधिकारी भी जानते हैं लेकिन ʺमुदहूं आंख कतहूं कोउ नाहींʺ की तर्ज पर सब कुछ चलता है की कहावत को चरितार्थ किया जा रहा है। इसका कारण नीचे से लेकर उपर तक पूरे कुएं में ही भांग पडी है का उदाहरण दिया जा सकता है।इसके लिए कहा जाता है कि प्रति आंगनबाडी केन्द्रो से 200 से  लेकर 500 रूपये तक लिया जाता है ओर उन्हे सब कुछ करने की छूट दे दी जाती है।

कुछ वर्ष पहले पुष्टाहार ब्लाक स्थित गोदामों पर आता था और वहां से केन्द्रो तक एजेन्सियों के माध्यम से पहंंचाया जाता था। बाकायदे इसका टेंडर निकलता था  और इसके तहत गोंदामों से केन्द्रो तक पहुंचाने की  टेंडर भरने वाले की जिम्मेदारी होती थी। अब देखा जा रहा है कि इस पुष्टाहार को केंन्द्र संचालिका महिलाएं स्वयं अपने साधनों और खर्चो से ले जाती है। प्रश्न उठता है कि अगर टेंडर प्रक्रिया समाप्त हो गयी है तो जो भी खर्च गोदाम से आंगनबाडी केन्द्र तक ले जाने का खर्च है उसे केंन्द्र संचालिका को भुगतान करना चाहिए। लेकिन यह भार केंन्द्र संचालिका पर पूरी तरह से डाल दिया गया है। अब अगर केन्द्र संचालिका इस का भुगतान अपने पाकेट या वेतन या मानदेय से करेगी  तो स्वाभाविक है कि वह ʺकुछ न कुछʺ तो करेगी ही। और अगर नही  करेगी तो उसे जो 3500 रूपये का मानदेय दिया जाता है उसमें 500 रूपये कार्यालय में देने के पश्चात और ब्लाक गोदाम से दूरी के अनुसार केन्द तक ले जाने का खर्च जो कम से कम 100 रूपये होगा और अधिकतम जो भी हो जाये वह कहां से आयेगा। स्वाभाविक रूप से वह इस प्रकार से पुष्टाहार को बेच कर ही तो उसकी भरपायी कर पायेगी। फिर कार्यालय वाले किस प्रकार से आगनबाडी केन्दो के ठीक ढंग से काम न करने की जांच कैसे करेगेंॽ

हमें सूत्रों से पता चला है कि इस प्रकार से गोदाम से केंन्दों तक पुष्टाहार पहुचांने की जिम्मेदारी अभी विभाग की ही है। लेेकिन अघोष्‍िात रूप से इस समाप्त किया बताया जा रहा है। इस प्रकार इसमें भारी घोटाले की बू आ रही है जो बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री और चारा घोटाले के सजायाफ्ता लालू प्रसाद के चारा घोटाले से भीबडा हो सकता है। इसमे भ्रष्टाचार की बूं इसलिए भी आ रही है कि इसकी वास्तविकता जांचने के लिए मैनं गत 30 अगस्त 2014 को एक आरटीआई महिला एवं बाल विकास विभाग भारत सरकार को आनलाइन फाइल किया जिसके बारे में आज तक मुझे कोई सूचना नहीं दी गयी। इसके खिलाफ गत 30-10-2014 को अपील भी की गयी जिसे दाखिल किये हुये एक माह के उपर हो गया है औरअभी तक कोई सूचना उपलब्ध नहीं करायी गयी। यह जांच का विषय है कि क्या पुरानी व्यवस्था अभी भी लागू है या नहींॽ अगर लागू है तो केंन्द्र संचालिकाओं को अपने खर्चे पर पुष्टाहार ले जाने के लिए क्यों दबाव डाला जाता है और यातायात का खर्च किसकी जेब में जा रहा है ॽ और नहीं तो फिर  मानदेय में से इस खर्च का भुगतान करना क्या संचालिकाओं को भ्रष्टाचार करने के लिए मजबूर नहीं किया जाताॽ एसा क्येाॽ

हाट कुक के नाम पर –

वैसे तो हाट कुक के नाम पर भी आगनबाडी से लेकर कार्यालय तक काफी खेल होता है लेकिन इसके मूल में वहीे भ्रष्टाचार ही है। जब प्रत्येक केंन्द्र से 200 से लेकर 500 रूपये तक लिया जायेगा तो फिर फर्जी खरीददारी और अन्य प्रकार के लेन देन के फर्जी रसीद और बिलों का भुगतान भी किया जाता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि वाराणसी के पिण्डरा ब्लाक मे एक सुपरवाइजर हैं जिनके पति बिना किसी ओहदे के इनके साथ काम करते है और इनका काम ही है फर्जी बिलों को तैयार करना और उसका भुगतान कराना। यहां वहीं कहावत चरितार्थ करता है कि सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का। अगर जांच की जाय तो इस कार्यालय की अधिकांश बिलो में उल्लिखित दुकान और दुकानदारों का कहीं अता पता नहीं चलेगा। लेकिन सब कुछ चलता है यहां भी लागू है। इसके बदले ये पति महाशय आंगनबाडी कार्यकत्रयेां से 500  प्रति केन्द्र अलग से लेते हैं। चूंकि सब कुछ फजी होता है चाहे उसे ये पति महाशय बनाये या केन्द्र संचालिका फिर कोई जानबूझ कर रिकश क्येां मोल लेॽ शायद इसी प्रकार के फर्जी गिरी को रोकने के लिए अब बाकायदें एजेंसियाें के माध्यम से हाट कुक केंन्द्रो तक पहुंचाया जा रहा है। लेकिन कहा गया है ʺतूं डाल डाल तो मैं पात पातʺ। यहां भी वहीं खेल धडल्ले से चल रहा हैं । आंगनबाडी केन्द्रो के संचालिकाआें से  मनमाने तरीके से बच्चेो की संख्या का उल्लेख करने को कहा जाता है और जो संचालिकाएं एसा नहीं करती उनका केन्द्र बन्द है या संख्या कम है आदि आदि का तोहमत इन संचालिकाओं पर मढा जा रहा है। कहने का तात्पर्य यह कि यह कार्यक्रम एक प्रकार से पूरी तरह से भ्रष्टाचार में लिप्त है और अधिकारी ʺमुंदहू आंख कतहूं कोउ नाहींʺ की तर्ज पर काम कर रहे हैं।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh