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काला सोना होता है कोयला !
हमारे लिए नहीं,
हमारे परिवार के लिए नहीं,
हमारे बच्चों के लिए नहीं ।
काला सोना होता है कोयला !
हमारे लिए नहीं,
क्योंकि हमारा भूत और भविष्य सब
कालेपन से भरा है लेकिन
स्वर्णिम कभी न हुआ ।
प्रकृति माँ थी हमारी !
और यहाँ के पेड़ पौधे,
जंगली जानवर सब हमारे सुख-दुःख के साथी थे ।
सब कुछ आराम से चल रहा था ।
फिर एक दिन शोर मचा,
“अबे तुम्हारे इलाके में कोयला है ।”
और फिर हमने काले स्वर्ण में
अपना स्वर्णिम भविष्य देखा ।
सपने देखे गए,
“हम आदिवासियों के अमीर होने के”
और फिर सपने के पीछे हमने अँधेपन में
अपने माँ के आँचल को टुकडों में बेच दिया,
कोयला निकालने वाली कंपनियों को ।
कुछ लोगों ने नहीं बेचा था जमीनों को,
शायद वह दूर दृष्टा थे, या फिर उनका स्वाभिमान
उनके सपनों पर भारी था ।
लेकिन क्या फ़ायदा ?
उनकी जमीनें जबरदस्ती खरीद ली गयीं ।
हमने खुद के अमीर बनने के सपने देखना चालू किया,
क्यूँ न देखते ? आखिर हम काले स्वर्ण के भंडार के मालिक जो थे ।
जहाँ सुबह-सुबह कोयल की कूक,
और रात को सियारों के चिल्लाने की आवाज सुनायी देती थी, जो जगह प्राकृतिक चहचहाहट की मधुरता से गुंजायमान होती रहती थी ।
वहाँ अब सिर्फ एक ही आवाज सुनायी देने लगी,
कोयले के खनन के लिए चलने वाली मशीनों की आवाज ।
सुबह, शाम, दिन रात एक ही आवाज खर्र-खर्र ।
लेकिन हमने बर्दाश्त किया आखिर हम अमीर जो बनने वाले थे ।
हमारे जंगली जानवर,
धीरे धीरे गायब होते गये,
कोई कोयले के लिए खोदे गये गड्ढों में गिर गया,
किसी ने जंगल ही छोड़ दिया,
और कई “कोल कम्पनियों” के साहबों के स्वाद के लिए मार डाले गये ।
हमने कुछ न कहा,
आखिर हम अमीर जो बनने वाले थे ।
वक्त बीतता गया,
बीतता गया और बीतता गया ।
और फिर हम जो कभी कोयले के खानों के मालिक हुआ करते थे आज उन्हीं खानों में मजदूरी कर रहे थे ।
जिस कोयले के लिए हमने प्रकृति के आँचल को टुकड़ो में बेंच दिया,
जिस कोयले के लिए हमने अपने साथियों की परवाह न की !
वो कोयला काला सोना साबित हुआ तो था,
लेकिन हमारे लिए नहीं,
उन कोल कम्पनियों के लिए ।
हम सिर्फ मजदूर बन कर रह गये थे,
अपनी ही जमीनों पर !
स्वर्णिम स्वप्न की धुंध में हमे धीमा जहर पिलाया गया था,
और आज हम धीमी मौत मर रहे थे ।
– कोयले की पहाडियों में रहने वाला एक आदिवासी ।
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