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“तुम नेता लोग चुल्लू भर पानी में डूबकर मर क्यों नहीं जाते?”
रामखेलावन वर्मा ने पत्रकार के हाथ से माइक जबरदस्ती छीना और एक विद्वान नागरिक की तरह आक्रोश व्यक्त करते हुए बोले।
चारों तरफ तालियां बजने लगीं, चारों तरफ वाह वर्मा जी, वाह वर्मा जी होने लगा। लोगों के आक्रोश को देखते हुए पत्रकार महोदय ने भी गला फाड़ते हुए, सामने मंच पर खड़े तीनों नेताओं को संबोधित करते हुए कहा-
“नेता जी देख लीजिये, यह किसी एक का आक्रोश नहीं है। यह जनता का आक्रोश है, सम्पूर्ण जनता का। आपकी गन्दी और घटिया राजनीति के प्रति।”
सामने तीन नेता थे, जिसमें एक था नौजवान, जो पहली बार इलेक्शन लड़ रहा था। दूसरे थे अधेड़ उम्र के, जो शायद एकाध बार इलेक्शन जीत चुके थे और तीसरे थोड़ा वृद्ध थे, जिन्हें देखकर लगता था कि अब इनका राजनीति में ज्यादा इंट्रेस्ट नहीं रह गया है। अधेड़ उम्र के नेता जी जिनको यह भी पता था कि अबकी बार वह इलेक्शन नहीं जीतने वाले थे, वह थोड़े अलसाये हुए, एक हाथ से अपना चश्मा संभालते हुए बोलने लगे…
“देखो भैया…
ई जो चु…ल्ल्ल्लू भर पानी में ड़ूब के मरने की बात आप कर रहे है न, इस चुल्लू भर पानी में हम उसी दिन जीना सीख गए थे, जिस दिन पहली बार हमने इलेक्शन का पर्चा भरा था और जिस दिन हम अपने बैनर-पोस्टर में नाम के नीचे बोल्ड कैपिटल अक्षरों में नेता और समाजसेवी जैसे शब्द लिखने लगे थे।
इसलिए… इस चुल्लू भर पानी में हम नेता लोगों के मरने की तो कौनो बात ही नहीं आती है। लेकिन… हमें इस बात का आश्चर्य जरूर है कि हमें चुल्लू भर पानी में मरने को वो जनता कह रही है, जिस जनता के घर पर इलेक्शन के पहले वाले शाम को हम जैसे नेताओं ने ढाई हजार का लिफाफा और फ्रेश क्वाॅलिटी का आधा किलो मुर्गा भेजा था। भेजिटेरियन लोगों को, जो मुर्गा-मुर्गी नहीं खाते हैं, उनको तीन हजार का लिफाफा मिला था।
अब इस जनता से हम पूछना चाहते हैं कि कितने लोगों ने हमारा दिया हुआ लिफाफा और मुर्ग़े का थैली वापस लौटाया था। कितने लोगों ने खुद सोच समझकर वोट दिया, कितने लोग हमारे लिफ़ाफ़े और आधा किलो मुर्गे पर नहीं बिके?
बताइये भई, चुप क्यों हैं? वर्मा जी आप ही कुछ बोल दीजिये। … हह, भैया अब बताओ कि किसको ड़ूब मरना चाहिए, हमको या आपको?”
नेता जी के जवाब को सुनकर चारों तरफ सन्नाटा छा गया था। रामखेलावन वर्मा जिन्होंने सवाल किया था, अब वे थोड़े झेंप से गए थे। कैमरामैन ने कैमरा बंद कर लिया था।
पत्रकार महोदय चुपचाप खड़े थे। सब कुछ शान्त था, एकदम शांत। शायद वहां खड़ी जनता को पता चल गया था कि उसने “खुद का गला, खुद ही घोंटा है।”
अगले दिन जब टीवी पर उस प्रोग्राम को दिखाया गया, तो रामखेलावन वर्मा के सवाल और नेता जी के जवाब को काट दिया गया था। शायद लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी जनता की चिरनिद्रा को तोड़ना नहीं चाहता था।
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