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प्रणाम करने की परंपरा दुनिया के हर कोने में है, लेकिन यह भारतीय संस्कृति का आधार है। शास्त्रों में जितने भी मन्त्रों का उल्लेख किया गया है, अधिकांश में नम: शब्द अवश्य आया है। यह नम: शब्द ही नमस्कार अथवा प्रणाम का सूचक है। जिस देवता का मन्त्र होता है, उसमें उसी देव को प्रणाम किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जब हम किसी को प्रणाम करते हैं, तो हम अवश्य ही आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और पुण्य अर्जित करते हैं। मनु ने तो प्रणाम करने के कई लाभ गिनाए हैं।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपि सेविन:, तस्य चत्वारि वर्धन्ते, आयु: विद्या यशो बलं।
अर्थात-प्रणाम करने वाले और बुजुर्गों की सेवा करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल चार चीजें अपने आप बढ़ जाती हैं। यह समाज की विडंबना ही है कि बहुत से लोग प्रणाम करने की बात तो दूर, प्रणाम का जवाब देने से भी कतराते हैं। इस बात को एक शेर में बहुत ही अच्छे ढंग से कहा गया है।
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, यह नए मिजाज का शहर है, जरा फासले से मिला करो। हालांकि प्रणाम को एक मर्यादा में बांधा गया है कि लोग अपने से श्रेष्ठ को अवश्य प्रणाम करें, लेकिन देखने में आता है कि प्रणाम भी स्वार्थ के मकड़जाल में उलझ कर रह गया है। जिसका समय अच्छा होता है, उसे प्रणाम करने वालों की कतार लग जाती है और समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो श्रेष्ठ तो हैं, लेकिन यदि उनसे स्वार्थ न सधता हो, तो उन्हें प्रणाम कम ही लोग करते हैं। इस सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदास ने तो गजब का आदर्श प्रस्तुत किया है।
सीय राममय सब जग जानी, करउं प्रनाम जोरि जुग पानी।
बन्दउं सन्त असज्जन चरना, दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।
मतलब यह कि वह सभी को प्रणाम करने का सन्देश देते हैं। उनके अनुसार सम्पूर्ण संसार में भगवान व्याप्त है, इसलिए सभी को प्रणाम किया जाना चाहिए। उन्होंने तो सन्त और असज्जन सभी की वन्दना की है। यही नहीं, श्रीरामचरित मानस में तो दुश्मन को भी प्रणाम करने का उदाहरण है। हनुमान जी को सुरसा निगल जाना चाहती है, फिर भी हनुमान जी ने उसे प्रणाम किया। चौपाई है-
बदन पैठि पुनि बाहर आवा, मांगी बिदा ताहि सिर नावा। एक बात और, किसी को प्रणाम न करने से अनजाने में ही सही, उसका अपमान हो जाता है। शकुन्तला ने दुर्बासा ऋषि को प्रणाम नहीं किया, तो उन्होंने क्रोधित हो कर शकुन्तला को श्राप दे डाला।
दरअसल, प्रणाम कोई साधारण आचार या व्यवहार नहीं है। इसमें बहुत बड़ा विज्ञान छिपा है। साधारण तौर पर उसका अर्थ है, हृदय से प्रस्तुत हूं। प्रणाम करने में प्राय: भगवान के नाम का उच्चारण किया जाता है, जिसका अलग ही पुण्य होता है। बहुत से मामलों में तो प्रणाम भी बाहरी तौर पर किया जाता है और हृदय को उससे दूर ही रखा जाता है। शायद इसी सन्दर्भ में कहावत प्रचलित हुई-मुख पर राम बगल में छूरी। इस तरह का प्रणाम करने से अच्छा है न ही किया जाए। प्रणाम एक ऐसी व्यवस्था है, जो समाज को प्रेम के सूत्र में बांध कर रखती है। इसके महत्व को समझा जाए, तो समाज से कटुता अवश्य दूर होगी। ऐसी मान्यता है कि यदि आप किसी साधक को प्रणाम करते हैं, तो उसकी साधना का फल आपको बिना कोई साधना किए मिल जाता है। प्रणाम करने से अहंकार भी तिरोहित होता है। अहंकार के तिरोहित होने से परमार्थ की दिशा में कदम आगे बढ़ता है। प्रणाम को निष्काम कर्म के रूप में लिया जाना चाहिए। वेदों में ईश्वर को प्रणाम करने की व्यवस्था है, जिसे प्रार्थना कहा गया है। यह कोई याचना नहीं, निष्काम कर्म ही है, जो परमार्थ के लिए प्रमुख साधन है। श्रीरामचरित मानस में कहा गया है, हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होइ मैं जाना। ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, जो प्रेम के वशीभूत हो कर प्रकट हो जाता है। इसलिए चेतन ही नहीं, जड़ वस्तुओं को भी प्रणाम किया जाए, तो वह ईश्वर को ही प्रणाम है, क्योंकि कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां ईश्वर नहीं है।
एक बात और, प्रणाम सद्भाव से ही किया जाना चाहिए, भले ही वह मानसिक क्यों न हो। शास्त्रों में इसके भी उदाहरण मिलते हैं। श्रीरामचरित मानस का सन्दर्भ लें, तो स्वयंबर के मौके पर श्रीराम ने अपने गुरु को मन में ही प्रणाम किया था।
गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा, अति लाघव उठाइ धनु लीन्हा।
अर्थात-उन्होंने मन-ही-मन गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुश उठा लिया। इस प्रकार प्रणाम के रहस्य को समझ कर उसे जीवन में लागू किया जाए, तो अनेक रहस्यपूर्ण अनुभव होंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं।
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