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गुमशुदा हूँ मैं

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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गुमशुदा हूँ मैं
तलाश जारी है
अनवरत ‘स्व ‘ की
अपना ‘वजूद’ है क्या ?
आये खेले ..
कोई घर घरौंदा बनाए..
लात मार दें हम उनके
वे हमारे घरों को….
रिश्ते नाते उल्का से लुप्त
विनाश ईर्ष्या विध्वंस बस
‘मैं ‘ ने जकड़ रखा है मुझे
झुकने नहीं देता रावण सा
एक ‘ओंकार’ सच सुन्दर
मैं ही हूँ – लगता है
और सब अनुयायी
‘चिराग’ से डर लगता है
अंधकार समाहित है
मन में ! तन – मन दुर्बल है
आत्मविश्वास ठहरता नहीं
कायर बना दिया है ….
सच को अब सच कहा नहीं जाता
चापलूसी चाटुकारिता शॉर्टकट
ज़िन्दगी की आपाधापी की दौड़ में
नए आयाम हैं , पहचान हैं
मछली की आँख तो दिखती नहीं
दिखती बस है मंजिल…
परिणाम – शिखर
शून्य में ढ़केल देता है फिर ..
शून्य – उधेड़बुन चिंता – चिता
‘एकाकीपन’ तमगा मिल जाता है
गले में लटकाए निकल लेता हूँ
अपना ‘वजूद’ खोजने
शायद अब जाग जाऊं
‘गुमशुदा’ हूँ मैं
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
कुल्लू हिमांचल प्रदेश
६/५/२०१६
१०:५० – ११;१५ पूर्वाह्न

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