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‘आम’ आदमी बन जाऊं

Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
Bhramar ka 'Dard' aur 'Darpan'
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‘आम’ आदमी बन जाऊं
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मन खौले ‘शक्ति’ की खातिर
‘आम’ आदमी बन जाऊं
भीड़ हमारे साथ चले तो
रुतबा मै भी कुछ पाऊँ
अगर ‘सुरक्षा’ चार लगे तो
शायद ‘थप्पड़’ ना खाऊं
अंकुर उभरा दबा -दबा मै
टेढ़ा -मेढ़ा ऊपर आया
ऊपर हवा स्वर्ग सी सुन्दर
मान के सीढ़ी चढ़ आया
‘सिर ‘ ऊपर तलवार है लटकी
आज समझ मै ये पाया
कहाँ रहूँ नीचे है दल-दल
ऊपर बिजली गिरती गाज
मूंड मुंडाए गिरते ओले
जान बचाऊं करून क्या काज ?
डाकू ‘वो’ लूटें सब अच्छा
निजी कमाई मै बदनाम
सौ कमरों में गुप्त खजाने
भोले भले नेता जी
‘दो’ से ‘चार’ अगर मेरा हे!
जनता को मै लूटा जी
यारों आओ अब जागें हम
सच ईमाँ को चुन लाएं
जाति धर्म को दूर रखें हम
कर ‘विकास’ आगे आयें
अपना भारत स्वर्ग अभी भी
फूट-फूट कर हम रोते
आओ मिल सब हाथ मिला लें
सिर धुन देखो वे रोते
प्रतिनिधि अपने जाएँ सच्चे
दर्द व्यथा जो अपनी समझें
‘फूल’ खिला अपनी क्यारी में
गुल-गुलशन बगिया महके
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल ‘भ्रमर ‘ ५
६.५५-७.२० पूर्वाह्न

जम्मू ३०.३.१४

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

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