कुछ अनकही सी ............!
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वो उलझनों के
धागे का एक सिरा
जो मैंने वर्षों पहले
तुम्हारे हाथों में थमाया था
कभी समान्तर चले
कभी आगे पीछे
पर चलते रहे निरंतर
हम दोनों के हाथ अब भी
एक एक सिरा है
न वादों की गांठें थी
न ही कसमों की
एक अनकहे संकल्प
के तरुवर की छाया थी
कल रात राह में भी
हम समान्तर सिरा थामे
कुछ ही कदम चले थे क़ि
उलझनों का वो धागा
सिमट गया था लेकिन
सिरा अब भी हमारी
उँगलियों के बीच उलझा हुआ था
!!! $hweta !!!
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