कुछ अनकही सी ............!
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एक बुत…..!
सागर सी लहरें उठती गिरती रही
यादों की दीवारों से टकरातीं और लौटती रहीं
सिमटती रहीं मुस्कुराहटें विरानियाँ गुलज़ार होती रहीं
आहटों के पाजेब से घुंघरू टूटे खामोशियाँ गुनगुनाती रहीं
सावन आँखों का रुकने लगा है धूप तन्हाई की जलाती रही
दर्मिया के फासले घटने बढ़ने लगे बूंदों में अक्स झिलमिलाती रही
उठ गया ख़ुदा से भरोसा फिर भी मुहब्बत दुवायें मांगती रही
बेरुखी और अल्फाजों में उलझ जिन्दगी वफ़ा के मायने समझाती रही
एक बुत मुरझाती नयी कोपलों को उम्मीद के जल से जड़ों को सींचती रही
~श्वेत~
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