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व्यक्ति सामान्यतः धर्म-निरपेक्ष नहीं होता, होना कोई बड़ी अच्छी बात भी नहीं, कम से कम धार्मिक होने से धर्म के नियंत्रण मे आदमी बुरा करने से कुछ तो परहेज करता है क्यूँकि ज्यादातर धर्म अच्छी बातें ही सिखाते हैं। अब जो व्यक्ति किसी धर्म माने, पर खुद को धर्म-निरपेक्ष कहे तो यह है तो खालिस बनावटी बात, उस पर कोढ़ मे खाज़ ये कि लोग मान भी लेते हैं। धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति होता ही नहीं, होना भी नहीं चाहिए, नियंत्रणहीन होने की सम्भावना ज्यादा होती है। हाँ, धार्मिक मामले मे निरपेक्ष होने के ढोंग बदले सहिष्णु होना एक अच्छी बात है, अपने धर्म क पालन करिये, ओरों क़ी उनके अपने धर्म के प्रति आस्था क सम्मान करिये, उस सीमा तक, जहाँ तक वे औरों के धर्म या फ़िर सामाजिक जनजीवन को अवांछित ढंग़ से प्रभावित नहीं करते।
हाँ, देश, दल, संस्था आदि धर्मनिरपेक्ष हों, यह समझ मे आता है। भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता एक विसंगति-भर बनकर रह गयी, सामाजिक समरसता सुनिश्चित करने के लिये अपनाइ गई धर्मनिरपेक्षता की मूलभूत अवधारणा थी कि शासन-प्रशासन किसी निर्णय, नीति-निर्धारण आदि मे किसी व्यक्ति य समुदाय से उसके धर्म के आधार पर विशिष्ट व्यवहार न करे, परन्तु वास्तविकता मे भारतीय राजनीति की एक बड़ी बिरादरी में एकमुश्त वोट-बैंक की खातिर देश के दूसरे सबसे बड़े समुदाय के प्रति विशेष अनुराग के प्रदर्शन की होड़ मे धर्मनिरपेक्षता क अर्थ समुदाय-विशेष की खुली पक्षधरता से लगाया जाने लगा है और इसका विरोध करनेवाले सांप्रदायिक ताकतों के रूप मे दुष्प्रचारित किये जाते रहे हैं। राजनैतिक लाभ के लिए इंसानी खून बहाने वाले कई नरपिशाच आपको सेकुलरिज्म का बुर्का ओढ़े गद्दियाँ कब्जाए दिख जाएंगे।
इस प्रकार मूलभूत संवैधानिक अवधारणाओं मे इरादतन की गई मिलावट देश के समक्ष एक बड़ा खतरा पैदा कर रही है, लोक-लुभावन पक्षपात और खैराती राजनीति के जरिये जिन गोलबन्दियों को राजनैतिक दल केवल स्वार्थवश हवा दे रहे हैं, यदि उन्हे विभिन्न समुदायों ने अपनाना जारी रखा तो आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, यानी क़भी न कभी अल्पसँख्यक गोलबंदी और उसके मुकाबले बहुसंख्यक गोलबंदी देश को एक आंतरिक गृहयुद्ध तक ले जा सकती है जो किसी भी प्रकार, किसी के लिये भी शुभ नहीं होनेवाला , और इस दिशा मे सबसे बड़ी जिम्मेदारी हम युवाओं पर है।
अब यह हमें तय करना कि हम धार्मिक सहिष्णु होकर सामाजिक समरसता वाले देश और समाज का निर्माण करने की ओर बढ़ेंगे या फ़िर छद्म-धर्मनिरपेक्षता की पीपड़ी की छलिया धुन में उन्मत्त हो शनै-शनैः एक गृहयुद्ध की ओर, और देश मे होनेवाले साम्प्रदायिक दंगे को इस गृहयुद्ध की आहट नहीं, धमक मना जाएं तो यह वास्तविकता को स्वीकार करने के ज्यादा क़रीब होगा।
जय हिन्द !!
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