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अपने राजनैतिक जीवन का सबसे दांव खेलने की तैयारी में लगे मुलायम सिंह यादव और उत्तर प्रदेश में सत्तासीन उनका समूचा कथित समाजवादी कुनबा हर-दिल-अजीज बनने की चाहत में नित नए हैरत-अंगेज (जो की कई दफ़े अहमकाना लगते हैं) कदम उठाता जा रहा है। यह दीगर बात है कि इनमे से ज्यादातर मामलों में ये औंधे-मुँह गिरे हैं। चाहे 72825 प्रशिक्षु शिक्षकों की भर्ती को रद्द करना हो, चाहे नए विज्ञापन में नियमों में परिवर्तन करना हो, चाहे शाम 7 या 8 बजे के बाद शोपिंग माल्स बंद करने का निर्णय हो, चाहे विधायक निधि से विधायकों को आलीशान गाड़ियाँ खरीद लेने की अनुमति का मामला, चाहे बेरोजगारों को भत्ता बाँटने का निर्णय हो, चाहे छात्रों को टेबलेट-लैपटॉप बाँटने का निर्णय हो, चाहे चकरिया फार्म की जगह विश्व-स्तरीय कैंसर अस्पताल बनाने का निर्णय हो, चाहे मृतक आश्रित अनुकम्पा नियुक्ति के अंतर्गत पुलिस उपाधीक्षक जिया-उल-हक़ की विधवा और भाई को नौकरी देने का निर्णय हो, हर मामले में सरकार के फैसले या तो औंधे-मुह गिरे या फिर अदालती झंझटों में फंसे हैं, या विवादों के घेरे में हैं, पर इन निर्णयों को इसे उनकी निरी बेवकूफी मानना भी निरी बेवकूफी ही होगी।
व्यक्तिगत स्वार्थ के धरातल से उठकर देखा जाये तो राजनीती के मंझे हुए खिलाड़ी मुलायम इतने भोले या नासमझ नहीं कि अपने लड़के की सरकार की सिलसिलेवार इतनी फजीहत यूँही, अनजाने में करवा लेंगे।
असल एक मशहूर अभिनेता का बड़ा प्रसिद्ध संवाद है, “हार कर जीत जाने वाले को बाजीगर कहते हैं” और राजनैतिक जोड़तोड़ के समय में मुलायम आजकल यही बाजीगरी करने की जुगत लगाने की कोशिश में है. राजनीति में सफल व्यक्ति के उल्टे-सीधे हथकंडे को रणनीति कहा जाता है और बड़े आदमी के नंगेपन को आधुनिकता, शायद यही मुलायम-चिंतन सरकारी हरकतों को इस दायरे में रोके हुए यहीं तक सिमट कर रह गया है। क्या हुआ जो काम नहीं होगा, क्या हुआ जो योजनायें अधूरी रह जाएगी, क्या हुआ जो इन क्या हुआ जो काम नहीं होगा, क्या हुआ जो योजनायें अधूरी रह जाएगी, क्या हुआ जो इन कवायदों में समय और जनता का पैसा बर्बाद होगा, क्या हुआ जो जनता की साइकिल पंक्चर हो जाएगी, इन समाजवादियों के पास कहने के लिए ये तो होगा, कि हमने तो आपके लिए सब किया, अब कोर्ट ने नहीं करने दिया, NCTE ने नहीं करने दिया, केंद्र सरकार ने नहीं करने दिया, विरोधियों ने नहीं करने दिया तो इसमें हमारा क्या कुसूर?
और अगर जनता भी अबतक ऐसे झांसे में आती रही हो तो ऐसा करने में नुकसान ही क्या है? और अगर मौका बेसिक शिक्षा को बर्बाद करके नई पीढ़ी की समूची पौध को मानसिक रूप से पिछड़ा बनाये रखने का मिले तो फिर बात ही क्या, आखिर पिछड़ों को तादाद जितनी ज्यादा होगी, पिछड़ों के रहनुमा बनने का दिखावा करने वाले सियासतदानों की अहमियत भी उतनी ही ज्यादा होगी। उनका यही सयानापन ही प्रदेश को पिछड़ेपन की अँधेरी गहराइयों में उतारने की और गद्दी पर काबिज़ रहने की सोची-समझी कवायद लगती है।
पिछले कुछ समय में हालिया सरकार द्वारा प्रदेश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के अनुपालन के नाम पर बेसिक शिक्षा का तिया-पाँचा करने वाले कुछ नमूनों की बानगी, हलकी-फुलकी पड़ताल के साथ पेशे-नज़र है।
(1) 72825 प्रशिक्षु शिक्षकों की भर्ती के निर्धारित स्वरुप में जबरन छेड़खानी:
मायावती सरकार के समय 30 नवम्बर 2011 को आए विज्ञापन से शुरू हुई TET-मेरिट के आधार पर चयन की प्रक्रिया को विवादों और अदालती दांव-पेंचों से बचाने की कोशिशों के बजाय इस सरकार ने सत्ता में आते ही इस मामले में कोरी बयानबाज़ी के साथ-साथ इस मामले को उलझाने के लिए अदालत और अदालत के बाहर जो मुमकिन हुआ, किया। सरकार की नज़र में शुरू से ही कम तादाद में मौजूद TET में अच्छा प्रदर्शन करने वालों के चयन से सुनिश्चित होने वाली गुणवत्तापरक शिक्षा के मुकाबले भारी तादाद में मौजूद औसत प्रदर्शन वाले अभ्यर्थियों की भीड़ से बन सकने वाले वोटबैंक की अहमियत कहीं ज्यादा थी, लिहाज़ा, यह जानते हुए कि यह सारी कवायद आखिर में जाया होने वाली है, सरकार ने इस भर्ती को उलझाने के लिए वो सब किया जिससे इनके इस संभावित वोटबैंक को यह सरकार अपनी सबसे बड़ी खैरख्वाह और हिमायती नज़र आये, बाद में नाकामी का ठीकरा फोड़ने के लिए किसी न किसी का सिर तो ढूंढ ही लिया जायेगा। ये सरकार बिना किसी पुष्ट आधार के धांधली के नाम पर पुराने विज्ञापन और प्रक्रिया को रद्द कर चुकी है, चयन का आधार बदलने के लिए सम्बंधित नियमों में संशोधन कर चुकी है, नए नियमों के आधार पर नया विज्ञापन निकाल चुकी है, और ऐन काउंसेलिंग वाले दिन इस प्रक्रिया पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ से लगे स्थगन और उसके आदेश से इस बात की गुंजाइश भी बन रही है कि यह सरकार जल्द ही अपना थूका चाटती नज़र आये, पर ऐसा करके भी सरकार एक अच्छे खासे तबके को यह सन्देश दे पाने में सफल रहेगी कि सरकार ने उनके लिए वो सब किया जो उसके लिए मुमकिन था।
(2) NCTE के दिशानिर्देशों से परे प्रस्तावित तुगलकी अध्यापक पात्रता परीक्षा:
NCTE ने गुणवत्तापरक शिक्षा और शिक्षकों का स्तर बनाये रखने के लिए प्राथमिक स्कूलों में अध्यापक के तौर पर नियुक्ति के लिए आवश्यक शर्तों में एक शर्त “NCTE के दिशानिर्देशों के अनुसार आयोजित अध्यापक पात्रता परीक्षा में उत्तीर्ण होना” थी, और NCTE ने बकायदे 11 फ़रवरी 2011 को दिशानिर्देश जारी कर के TET के लिए सिर्फ 2 प्रश्नपत्रों का प्रावधान किया, पहला, कक्षा 1 से 5 के लिए और दूसरा कक्षा 6 से 8 के लिए, और उनमे प्रश्नों की संख्या, विषय, अंक, अवधि तथा प्रश्नों की प्रकृति-प्रवृत्ति तक का विस्तृत वर्णन किया, और आज अगर यह सरकार केवल खुद को मुस्लिमो का खैरख्वाह दिखाने के लिए मोअल्लिम-ए-उर्दू (1997 के पहले के) और अलीगढ़ विश्वविद्यालय से डिप्लोमा इन टीचिंग के लिए प्राथमिक स्तर और उच्च प्राथमिक स्तर के लिए NCTE के TET-सम्बन्धी प्रावधान और उनके उद्देश्यों को ठेंगा दिखाते हुए अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए TET के नाम पर एक ऐसी परीक्षा कराने जा रही है जो इसके लिए एक परिखा (खाई) साबित होने वाली है, क्यूंकि NCTE के 11 फ़रवरी 2011 दिशानिर्देशों के अनुसार हुई कोई परीक्षा ही उसके 23 अगस्त 2010 की अधिसूचना के सन्दर्भ में अध्यापक पात्रता परीक्षा मानी जाएगी न कि किसी तिकड़मी नेता द्वारा मनमाने ढंग से, अनधिकृत रूप से केवल नाम मात्र के लिए कराई गई स्तरहीन परीक्षा। ज्यादा सम्भावना इसी बात की है कि इन परीक्षाओं को NCTE से मान्यता ही नहीं दी जाएगी क्यूंकि जो NCTE प्रश्नपत्र की अवधि डेढ़ से ढाई घंटे की अनुमति भी सीमित अवधि के लिए, लिखित रूप से देती है, वह राज्य सरकार को मनमाने ढंग से TET के उद्देश्य, प्रासंगिकता और स्वरुप को बर्बाद करने की अनुमति भला कैसे देगी?
(3) बीoएडo-धारकों को कक्षा 1 से 5 तक के लिए प्रस्तावित अध्यापक पात्रता परीक्षा में सम्मिलित न करने का निर्णय:
हाल ही में इस सरकार ने कक्षा 1 से 5 के लिए आयोजित होने वाली TET में बीoएडo डिग्रीधारकों को सम्मिलित न होने देने का एक और तुगलकी निर्णय लिया है जबकि NCTE की 12 सितम्बर 2012 की अधिसूचना में ऐसे अभ्यर्थियों को TET उत्तीर्ण होने पर इन कक्षाओं में अध्यापक के तौर पर 31.03.2014 तक नियुक्ति की अनुमति देते समय यह भी स्पष्ट किया कि ऐसे अभ्यर्थी उक्त तिथि तक इन कक्षाओं के अध्यापकों की अर्हता के उद्देश्य से उत्तर प्रदेश राज्य सरकार द्वारा आयोजित होनेवाली TET में भी बैठने के पात्र होंगे। ऐसे में प्रदेश सरकार द्वारा इन्हें प्रतिबंधित करना स्पष्ट रूप से अपने अधिकार खेत्र का अतिक्रमण, NCTE की अनुमति का उल्लंघन और जानते-बुझते गलत कदम उठाने का उदहारण है, पर शायद यही हथकंडे इन समाजवादियों के पास बाकी रह गए हैं। जाहिर है, TET-सम्बन्धी ये निर्णय भी अदालती दखल के लिए जमीन तैयार करने का बायस बनेगा।
(4) शिक्षामित्रों को दूरस्थ शिक्षा पद्धति से प्राथमिक शिक्षा में दो-वर्षीय प्रशिक्षण:
इसके अलावा सरकार द्वारा शिक्षामित्रों को “दूरस्थ शिक्षा-विधि से प्राथमिक शिक्षा में दो-वर्षीय डिप्लोमा” के नाम पर दिलाये जा रहे प्रशिक्षण की वैधता का मामला भी न्यायालय में विचाराधीन है, रिट याचिका 28004/2011 (संतोष कुमार मिश्रा व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार व अन्य) की सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने इस प्रशिक्षण को प्रथमदृष्ट्या अवैध मानते हुए स्थगनादेश दिया था जिसे खंडपीठ द्वारा यह कहकर स्थगनादेश हटा दिया था कि इस मामले में इस प्रशिक्षण की वैधता मामले की सुनवाई कर रही पीठ के निर्णय के अधीन होगी, यह मामला आज भी विचाराधीन है। इस मामले में विपरीत निर्णय आने पर सरकार इसका ठीकरा फिर से एक बार न्यायालय के माथे फोड़ कर शिक्षामित्रों की सच्ची शुभचिंतक बनने का ढोंग पहले की ही भांति करने वाली है।
यदि इस प्रशिक्षण के तकनीकी पहलुओं पर गौर करें तो NCTE द्वारा मान्यता प्राप्त “दूरस्थ शिक्षा पद्धति से प्राथमिक शिक्षा में दो-वर्षीय डिप्लोमा” नामक प्रशिक्षण कार्यक्रम में प्रवेश के लिए आवश्यक अर्हता में “सरकारी या सरकारी मान्यता-प्राप्त प्राथमिक विद्यालय में २ वर्ष का शिक्षण अनुभव” अनिवार्य है जो कि सामान्यतया एक नियमित शिक्षक के पास ही हो सकता है, यहाँ ध्यान देना चाहिए कि शिक्षामित्रों के अनुबंध में स्पष्ट होता है कि “उनकी सेवा रोजगार-परक नहीं हैं, उनके द्वारा दी गयी सेवा सामुदायिक सेवा के तौर पर मान्य होंगी, उनको अपनी सेवाए केवल 11 महीनो के नवीनीकरणीय संविदा पर तैनात कर्मी के रूप में देनी हैं जो 11 की अवधि समाप्त होते ही स्वतः समाप्त मानी जाएँगी, वे कभी स्वयं को कभी न राज्य-सरकार या उसके किसी अंग का कर्मचारी मानेंगे न उसके लिए कोई दावा पेश करेंगे।” ऐसे में उनके द्वारा दी गई सेवाओं की अवधि इस उद्देश्य के लिए “अनुभव” के तौर पर मान्य है या नहीं, NCTE से इसके स्पष्टीकरण की प्रतीक्षा है। विपरीत निर्णय शिक्षामित्रों के लिए कितना भारी पड़ सकता है, प्रदेश सरकार इस बात पर गंभीरता से ध्यान देने के बजाय अभी भी उनके सब्जबागों के रंग गहरे करने में जुटी है।
साथ ही NCTE के अनुसार ऐसे प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए उपयुक्त अभ्यर्थी चुनने के लिए राज्य-सरकार को उपयुक्त चयन-प्रक्रिया बनानी चाहिए तथा राज्य में प्रभावी आरक्षण-सम्बन्धी प्रावधानों का चयन में पूरी तरह अनुपालन होना चाहिए और शिक्षामित्रों के प्रारंभिक चयन और प्रशिक्षण के लिए हुए चयन के लिए किस उपयुक्त प्रक्रिया का पालन हुआ और उसमे आरक्षण सम्बन्धी प्रावधानों का कितना अनुपालन हुआ, ये किसी से छिपा नहीं है। इन प्रावधानों के उल्लंघन की ओर NCTE का ध्यान दिलाते हुए आवश्यक जानकारी मांगी गई है, जिसके प्राप्त होने पर इस सन्दर्भ में NCTE के दृष्टिकोण और इनके प्रति उसकी गंभीरता का अंदाज़ा लगा पाना संभव होगा।
(5) शिक्षामित्रों के सहायक अध्यापक के रूप में समायोजन का निर्णय:
वास्तव में शिक्षामित्रों के लगातार दबाव से प्रभावित होकर सरकार ने प्रदेश में संविदा पर तैनात लगभग 1,70,000 शिक्षामित्रों में से 1,24,000 स्नातक शिक्षामित्रों को NCTE से मान्यता प्राप्त दूरस्थ शिक्षा विधि से मात्र “2-वर्षीय डिप्लोमा इन एलिमेंटरी एजुकेशन” प्रशिक्षण दिलाने का फैसला किया परन्तु आज तक सरकार द्वारा जोरशोर से प्रचारित किया जा रहा है कि प्रशिक्षण के बाद इन्हें सीधे सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्ति दी जाएगी। अर्थात प्रकारांतर से शिक्षामित्रों के दबाव को कम करने के लिए उन्हें TET से छूट और शिक्षकों के पद पर समायोजन के सब्जबाग भी सरकार समय-समय पर दिखाती रहती है।
परन्तु दिनांक 17 अप्रैल 2013 को प्राथमिक विद्यालयों में TET की अनिवार्यता के मामले की सुनवाई कर रही वृहद् पीठ के सामने सरकार ने स्वीकार किया कि बिना TET उत्तीर्ण किये कोई भी व्यक्ति, जिनमे शिक्षामित्र भी शामिल हैं, प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक नहीं बन सकता। अदालत में सरकारी अधिवक्ता द्वारा स्पष्टवादिता के बजाय शुरुआत में गोलमोल जवाब देने के प्रयास से भी उनकी नीयत में खोट झलकता है। ऐसे में सरकार की मंशा साफ़ समझी जा सकती है।
यदि मान भी लिया जाये कि शिक्षामित्रों के प्रशिक्षण को मान्यता मिल जाती है और वे TET उत्तीर्ण हो जाते हैं, फिर भी सहायक अध्यापकों के पद पर उनके समायोजन के रास्ते में संविधान का अनुच्छेद 14 एवं 16 एक बड़ी बाधा हैं और सार्वजनिक क्षेत्र के सेवायोजन में अवसर की समानता के सिद्धांत के अनुपालन को ठेंगा दिखाते हुए अन्य अर्ह अभ्यर्थियों को बाहर रखते हुए, खुली भर्ती के बदले समायोजन के माध्यम से शिक्षामित्रों को नियुक्ति देना भी टेढ़ी खीर साबित होने वाला है।
(6) शिक्षामित्रों का मानदेय बढाने के दिखावे की क़वायद:
यह जानते-बूझते कि शिक्षामित्रों का वजूद एक नियमित अध्यापक का नहीं है और केंद्र सरकार उनके मानदेय के मद में एक पैसा नहीं देने वाली, इस सरकार ने इस महंगाई के ज़माने में भी अपने बजट से उनका मानदेय पैंतीस सौ रुपये माहवार से बढाकर एक संतोषजनक स्तर तक ले जाने के बजाय केवल दिखावे के लिए उनका मानदेय बढाने का एक निहायत अप्रासंगिक और अनौचित्यपूर्ण प्रस्ताव केंद्र को भेजा जिसका रद्दी की टोकरी में जाना तय था और वही हुआ, पर सरकार ने शिक्षामित्रों के हिमायती के तौर पे थोड़ी नेकनामी बटोर ली और केंद्र सरकार के लिए उनके मन में कुछ कटुता पैदा कर दी, पर क्या एक राज्य सरकार को यह बताने की जरुरत है कि किस मद में आपको केंद्र से पैसा मिल सकता है और किस मद में नहीं।
मेरा मानना है कि एक सयाने व्यक्ति द्वारा मूर्खता का दिखावा अव्वल दर्जे की धूर्तता होती है और बड़ी घातक होती है। पर शायद ऐसी धूर्तता से दो-चार होकर ही, इसके दुष्परिणाम को भुगतकर ही, व्यक्ति को वास्तविकता का वास्तविक बोध होता है और आगे चलकर यही अनुभव बड़े और महत्वपूर्ण निर्णय सही और समग्र रूप से लेने में सक्षम बनाता है। क्या पिछले कुछ समय से हो रही इन चालबाजियों ने लोगो को निचोड़ने के साथ साथ उनमे संघर्ष का जज्बा नहीं जगा दिया है, क्या अब लोग सरकार के गलत-तो-गलत, कई बार सही निर्णयों को भी अदालतों में नहीं घसीट रहे, क्या सर्वशक्तिमान सरकार की अवधारणा बीते दो-एक सालों में धुल-धूसरित नहीं हो चुकी है?
आखिर 1947 में मिली हमारी आज़ादी भी कई सौ सालों की गुलामी उससे उपजी बेबसी, उसके कारण हुई पीड़ा, उससे मिले अनुभव और उस से पैदा हुए संघर्ष की भावना का ही परिणाम थी, और अब तो हमारा साथ देने के लिए एक लोकतान्त्रिक ढांचा मौजूद है।
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