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उस्मानी की कहानी, हिंदुस्तान की जुबानी। Date 16 feb 2013

PAHAL - An Initiative by Shyam Dev Mishra
PAHAL - An Initiative by Shyam Dev Mishra
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गुप्तरोगों के शर्तिया इलाज का दावा करते नीम-हकीमों और झोला-छाप डाक्टरों के बड़े-बड़े अक्षरों में दीवारों पर लिखे, माफ़ कीजियेगा, पुते विज्ञापन हर उस आदमी ने देखे होंगे जिसने ट्रेन से यात्रा करते समय शहरों के बाहरी इलाकों में खिड़की से बाहर झाँका है या जो देश में पर्याप्त सार्वजनिक शौचालयों के अभाव में और कई बार शौकिया भी, या यूँ कहें कि आदत से मजबूर होकर अक्सर दीवारों के सहारे “प्रकृति की पुकार” का प्रत्युत्तर देते रहते हैं।

पर ध्यान देने वाली बात यह है कि ऐसे विज्ञापन हमेशा बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे जाते हैं ताकि व्यक्ति ज्यादातर मामलों में उस विज्ञापन में दी गई मनगढ़ंत जानकारी और शर्तिया इलाज के खोखले दावे से नहीं तो शायद उनके आकार से ही प्रभावित हो जाये। इनको लिखने वाले पेंटर भी इन विज्ञापनों के कोने में अपना नाम भी काफी करीने से लिखते हैं पर उन्हें भी किसी स्तरीय विज्ञापन एजेंसी से बुलावा-पत्र नहीं आता। झारखण्ड से कानपुर की यात्राओं के दौरान पिछले 20 सैलून में मैंने दीवान साहब, जैन साहब और हाशमी दवाखाना के अलावा शायद हकीम उस्मानी या मिलते-जुलते नाम बड़े-बड़े अक्षरों में देखे जरूर हैं पर आज तक मैंने किसी समझदार आदमी को इन्हें और पेंटरों को गंभीरता से लेते नहीं देखा, बारिशे आती हैं और ये बड़े-बड़े अक्षर धुल जाते हैं।

पर यह भी सत्य है कि जो भी व्यक्ति अपनी समस्या के बारे में एक बार किसी योग्य चिकित्सक से सलाह ले लेता है वह इन नीम-हकीमों के विज्ञापनों में दिए गए तथाकथित बीमारी के लक्षणों से परेशान नहीं होता बल्कि समझ जाता है कि ये लोग साधारण सी बात को ऐसे पेश करते मानो वह बहुत बड़ी बीमारी का लक्षण हो, ताकि आदमी परेशान होकर इनका शिकार बन सके।

ठीक उसी तरह उस्मानी ने अपने विज्ञापन में TET और पुरानी चयन-प्रक्रिया में जिस बीमारी से डराने की कोशिश की है, उसके बारे में माननीय न्यायमूर्ति के सामने दूध का दूध और पानी का पानी होने ही वाला है। सरकार का यह बहु-प्रतीक्षित, बहु-प्रचारित पटाखा 12 तीख को कोर्ट में पूरी तरह “फुस्स” हो चूका है। अब सरकार या उस्मानी या यादव इसपर कितनी भी सुतली लपेट लें लें, यह दगने वाला नहीं है क्यूंकि पटाखे को दगाने लायक बनाने वाला बारूद इनके पास है ही नहीं। मेरे ऐसा कहने का आधार यह है कि खंडपीठ द्वारा 4 फ़रवरी को दिए गए आदेश के आलोक में सरकार को पता था कि 12 फ़रवरी को खंडपीठ मामले का निपटारा कर देगी, ऐसे में स्वाभाविक था कि वो अपने तरकश का हर तीर, माफ़ कीजियेगा, शायद इनकी मानसिकता के हिसाब से मैंने ज्यादा अच्छा बोल दिया, अपनी गली का हर पत्थर बटोर लाई होगी ताकि कोर्ट में टेट-मेरिट को ख़तम किया जा सके, पर एक योग्य चिकित्सक की तरह न्यायमूर्ति हरकौली जी ने मामले का वास्तविक परीक्षण किया और अधिकृत पैथोलोजियों से आनेवाली भरोसे-लायक टेस्ट-रिपोर्ट के आधार पर ही इलाज की बात कही, पूरी टेट-मेरिट को मरणासन्न बताकर उसे हकीम साहब के रहमो-करम पर छोड़ देने के बजाय उन्होंने केवल जरुरत पड़ने पर सिर्फ और सिर्फ, उस अंग को शल्य-क्रिया के जरिये अलग किये जाने की संभावना जताई है जिसके पूर्णतया ख़राब हो जाने की पुष्टि अधिकृत टेस्ट-रिपोर्ट के जरिये होगी, पर मरीज की जान को खतरे की बात तक उन्होंने कभी नहीं की है, क्यूंकि वो खुद ऐसी बीमारियों के विशेषज्ञ हैं, अतः बड़े-बड़े अक्षरों में छपे इन विज्ञापनों से उनपर फर्क नहीं पड़ने वाला। अगर आप माननीय हरकौली जी के आदेश के सम्बंधित अंश देखें तो आप स्वयं इसे स्वीकार कर लेंगे;

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04.02.2013 को विशेष अपील स0 150/2013 और अन्य संलग्न याचिकाओं की सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय की माननीय न्यायमूर्ति सुशील हरकौली और न्यायमूर्ति मनोज मिश्र की सदस्यता वाली खंडपीठ के आदेश के अंश;

पुरानी चयन-प्रक्रिया को रद्द करने के आधार, जैसा कि 26.07.2012 के (सरकार के) आदेश में उल्लेख है, दो तरह आधार (अवधारणा/­मान्यता) हैं। पहला आधार कहता है कि TET के आयोजन में कुछ अनियमितताएं, जैसा कि आरोप
लगाया गया है। प्रतीत होता है कि मुख्य सचिव की अध्यक्षता में किसी हाई पावर कमेटी ने एक
रिपोर्ट दी, जिसके आधार पर समूची चयन-प्रक्रिया, जिसमे TET में प्राप्तांक ही चयन-निर्धारक थे, को रद्द किया गया।
एकल न्यायाधीश ने अपने प्रश्नगत आदेश में स्पष्ट किया है कि अगर (TET में) कुछ जगहों पर कुछ अनियमितताएं पाई गई थी तो इसके ख़राब हिस्से से TET के अच्छे हिस्से को अलग किये जाने के प्रयास किये जाने चाहिए थे, परन्तु
समूची चयन-प्रक्रिया को रद्द नहीं किया जाना चाहिए था।

अबतक राज्य की ओर से ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला है (जिस से पता चल सके) कि अच्छे हिस्सों, मतलब वे जगहें या क्षेत्र, जहां TET में कोई अनियमितता नहीं थी, को खराब हिस्सों, मतलब उन जगहों या क्षेत्रों, जहां अनियमितताएं हुईं थीं, से अलग किया जा सका या नहीं किया जा सका।
अतिरिक्त महाधिवक्ता के निवेदन के अनुसार हाईपावर कमेटी की रिपोर्ट जवाबी-हलफनामे के जरिये कोर्ट में रखी जा सकती है, उस रिपोर्ट या अन्य पूर्ववर्ती दस्तावेजों के आधार पर (इस बात का भी ) एक तर्क-संगत कारण भी इंगित
होगा कि (कैसे) अच्छे हिस्से को खराब हिस्से से अलग किया जाना संभव था या नहीं था।
सभी पक्षों की सहमति के साथ हमारा इरादा इन सभी याचिकाओं को स्वीकार करने के चरण में ही अंतिम रूप से निस्तारित करने का है जिसके लिए हमने 11.02.2013 की तिथि निर्धारित की है। अतएव, हमारा मत है कि इतने सारे अभ्यर्थियों को काउंसिलिंग की परेशानी में नहीं डालना चाहिए, जो (काउंसिलिंग) कि इन सभी याचिकाओं के अन्ततः स्वीकार होने (याचियों की मांग मान लिए जाने) की स्थिति में निरर्थक कार्यवाही भर रह जाएगी।
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12.02.2013 को विशेष अपील स0 150/2013 और अन्य संलग्न याचिकाओं की सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय की माननीय न्यायमूर्ति सुशील हरकौली और न्यायमूर्ति मनोज मिश्र की सदस्यता वाली खंडपीठ का आदेश;

सभी याचिकाओं को 20.02.2013 को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया जाये और उक्त तिथि तक सरकारी पक्ष एक पूरक जवाबी हलफनामे के साथ हाई पावर कमेटी की रिपोर्ट में उल्लिखित अनियमितता के सम्बन्ध में, सभी अनियमितताओं के लिए अलग-अलग, सभी सम्बंधित/आरोप को पुष्ट करनेवाले दस्तावेजों की प्रतियाँ लगाते हुए उनका पूर्ण विवरण पेश करेगी। ऐसी प्रत्येक अनियमितता का ब्यौरा एक विश्लेषणात्मक तरीके से किया जायेगा। बहस के दौरान हमने अतिरिक्त महाधिवक्ता का ध्यान इस ओर दिलाया है कि सरकार के जवाबी हलफनामे के साथ लगे गई कमेटी की रिपोर्ट एक बुनियादी सवाल उठती है कि क्या कमेटी ने आरोपों और उपलब्ध सामग्री के सम्बन्ध में विश्लेषणात्मक तरीके से जांच के जरिये अपने दिमाग का इस्तेमाल किया है या फिर मामले में निहायत सतही दृष्टिकोण अपनाया? उदहारण के लिए, रिपोर्ट में दर्ज है कि 3493 OMR-शीटों की कार्बन-कापियां एजेंसी के दफ्तर से जब्त की गईं।

केवल इस लिए कि एजेंसी के दफ्तर से कार्बन-कापियां मिलीं, इसका अनिवार्य रूप से केवल यह मतलब नहीं निकलता कि इन कार्बन-कापियों की मूल OMR-शीटें नहीं मिली हैं। कमेटी को यह बात स्पष्ट करनी चाहिए थी। साथ ही, इस बात पर विचार ही नहीं किया गया कि किस सामग्री के आधार पर पुलिस-अधीक्षक ने यह नतीजा निकाला कि कंप्यूटर स्कैनर ने मूल OMR-शीट के स्थान पर उनकी कार्बन-कापियां जाँची हैं।

याचिओं की ओर से कहा गया कि मूल OMR-शीट में एक “बार-कोड” होता है जिसके बिना कंप्यूटर स्कैनर OMR-शीट को नहीं जांचेगा। इस बात पर बहस हुई, पर इस आशय का कोई जवाब नहीं आया कि कार्बन-कापियां चूँकि परीक्षा के बाद अभ्यर्थी को वापस की जनि होती हैं, उनपर बार-कोड नहीं होता।

हमारा विचार है कि जब सम्बंधित चयनित (जांच के लिए चुने गए) अभ्यर्थियों को अपनी बात की सुनवाई का मौका नहीं मिल पा रहा है और चूँकि मामले का निर्णय सत्तर हज़ार से ज्यादा अभ्यर्थियों के भाग्य को बदल देने वाला है, हाई पावर कमेटी पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी बनती है, पूरा ब्यौरा खंगालने और निकालने की, इस तरह प्राप्त सामग्री का परीक्षण और विश्लेषण करने की, और उन रिपोर्टों को जांचने की, जिनके आधार पर यह कमेटी अपना फैसला दे रही है।

इन बातों की रोशनी में, एक पूरक जवाबी हलफनामा राज्य की और से दाखिल किया जाना चाहिए। विद्वान् अतिरिक्त महाधिवक्ता के निवेदन के अनुसार ये सभी मामले 20.02.2013 को सुनवाई के लिए रखे जाएँ।

अंतरिम आदेश (नए विज्ञापन के अनुपालन में चल रही चयन-प्रक्रिया को स्थगित रखने का) अगली तारीख तक लागू रहेगा।

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साथियों, इस प्रश्न का उत्तर कोई और नहीं, खुद आपका बौद्धिक स्तर तय करेगा कि आपको किसी अनधिकृत नीम-हकीम की बात पर भरोसा करना है या दीवारों पर इसे पोतने वाले सड़क-छाप पेंटर पर या मामले को देखने-समझने-इलाज करने में सक्षम और अधिकृत किसी योग्य चिकित्सक पर, खास तौर पर तब, जब यही तय करना बाकी हो कि बीमारी है भी या नहीं!! हिंदुस्तान में छापा संजोग मिश्रा का यह आलेख कुछ और नहीं, ग्राहकों से खाली पड़ी दुकान में ग्राहकों को लुभाने के लिए बासी कढ़ी को उबालकर पेश करने जैसा प्रयास है, स्वस्थ लोग इस से बचें, फ़ूड-प्वोयजनिंग हो सकती है।date feb 16

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