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तोतलाने को भाषण,
अराजकता को साहस,
गुंडई और लौंडपने को छात्र-राजनीति,
चुनाव जीतकर स्वार्थसिद्धि को राजनीति,
अवसरवाद को सिद्धान्त,
राजनैतिक ठगी की योजनाओं को विचारधारा,
घोर-तुष्टिकरण को धर्मनिरक्षता,
परिवार-कल्याण को समाजवाद,
सत्ता में बैठकर लूट-अत्याचार-दमन को शासन,
चुनाव जीते गुंडों-माफियाओं को राजनैतिक सहयोगी,
पारिवारिक नियंत्रण में बने राजनैतिक गिरोह को पार्टी,
औलाद की ओन-जॉब ट्रेनिंग के तमाशे को सरकार,
गुंडई-बदमाशी-षड्यंत्र के प्रशिक्षकों को मंत्रिमंडल और
मौक़ापरस्त ताकतों के बेशर्म सियासी मेल को तीसरा मोर्चा
कहनेवाले ये राजनैतिक बहुरूपिये वाकई में उस से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं, जितने ये दिखते हैं। असल में ये कहते कुछ हैं, और मतलब कुछ और होता है और जो कहते-करते हैं, उसका शालीनता से कोई लेना-देना नहीं होता, इसीलिए इनको भारतीय राजनीति का रम्पत हरामी कहना कई सन्दर्भों में सटीक बैठता है। अल्पसंख्यकों के बीच केवल अल्पसंख्यक-हित की बात कहने के लिए मुस्लिम रूप बनाकर जाना वक्ती तौर पर भले मात्र एक स्वाँग लगे, परन्तु परोक्ष-अपरोक्ष रूप से अल्पसंख्यकों को यह सन्देश देने की गन्दी कोशिश है कि मुस्लिम-हित की बात केवल कोई मुस्लिम या मुस्लिम-परस्त रहनुमा ही कर सकता है, न कि किसी अन्य धर्म का माननेवाला या कोई सच्चा धर्मनिरपेक्ष। इस प्रकार का स्वाँग अल्पसंख्यक समुदाय को आशंकाग्रस्त रखकर बाकी समाज से काटे रखने और इन्हे एक वोट-बैंक के रूप में कब्जाए रखने के लिए किया जाता है, जो स्वयं मुस्लिम समुदाय के लिए खासा हानिकारक रहा है। कौन मुस्लमान नहीं चाहेगा कि वह निःशंक होकर अपनी धार्मिक स्वतंत्रता के साथ, बाकी समाज के साथ समाज का एक अंग बनकर एक सामान्य जिंदगी जिए, पर जिसदिन ऐसा हुआ, उसदिन इन बहुरुपियों की राजनीती की जमीन ही ख़त्म हो जाएगी। आज़ादी के बाद से ही सत्ता पाने या सत्ता में आने के लिए कभी इस दल तो कभी उस दल द्वारा अल्पसंख्यकों का हितुवा बनकर इन्हे बाकि समाज से अलग रखने की राजनीतिक कवायद होती आई है, नतीज़तन मुस्लिम समुदाय समाज में उस सीमा तक नहीं घुलमिल पाया, जितना अन्य समुदाय।
लेकिन मुसलमानो को, बाकि अल्पसंख्यकों को, बहुसंख्यकों को, देश को, किसी धर्मविशेष का नहीं, किसी भी धर्म-जाति का एक ऐसा रहनुमा चाहिए के सभी तबकों, हर जाति-सम्प्रदाय के भले के लिए समावेशी कार्यक्रम बनाये और बिना किसी धार्मिक आग्रह-पूर्वाग्रह-दुराग्रह के इनको अमली जामा पहनाये। कौन इस बात से इंकार करेगा कि आज़ादी के समय मुसलमानो के तत्कालीन सबसे बड़े नेता मुहम्मद अली जिन्ना के पाकिस्तान जाने के बाद भी मुसलमानों के तमामों-तमाम परिवार, गाँव, शहर तमाम आफतों के बावजूद पाकिस्तान जाने के बजाय अगर हिंदुस्तान में बने रहे तो किसी मुस्लिम रहनुमा के भरोसे नहीं, बल्कि इस देश के सेक्युलर करैक्टर के भरोसे, इस देश के संविधान के भरोसे, इस देश के लोकतंत्र के भरोसे, इस देश के बहुसंख्यक समुदाय के भरोसे और इंसानियत के भरोसे। घर छोड़कर जाना कोई पसंद करता है क्या ?नहीं न? सो नहीं गए और हैं अपने घर में !
हाँ, बाद के सालों में शायद कुछ ऐसे हालात बने होंगे कि वोटबैंक की राजनीति देश में सफल हुई, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक समुदाय में दूरियाँ बढी और ऐसे राजनैतिक बहुरुपियों और रम्पत हरामियों को अपना स्वाँग और नौटंकी दिखाने का अवसर मिला जो शालीनता और मर्यादा के खिलाफ था, पर चला भी काफी। सस्ता, घटिया और फूहड़ साहित्य, संगीत और विन्यास क्या आपने चलता-बिकता नहीं देखा?
पर अब समय आया है कि सभी समुदाय परस्पर विश्वास रखकर, आपसी भाईचारे को बढाकर एक खुशहाल देश और खुशहाल समाज का निर्माण करें, इसकी नियामतों का फायदा उठायें। अगर अब ऐसा नहीं हुआ तो तरक्की की दौड़ में हमारा मुल्क, हमारा समाज और खुद हम, चाहे वो अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, ताम दुनिया से न सिर्फ पिछड़ जाएंगे, बल्कि जिंदगी की जद्दोजहद से जूझने के भी काबिल नहीं रहेंगे, क्यूंकि आपस में जूझने का सिर्फ आगाज़ होता है, अंजाम नहीं। अवाम ने नई शुरुआत का आगाज़ कर दिया है, हुक्मरान इसे अंजाम तक पहुचाएं तो कोई वजह नहीं बचती कि भारतीय राजनीति के इस घटिया रम्पती स्वरुप का जल्द ही कफ़न-दफ़न होता न दिखे।
(*रम्पत हरामी उत्तर प्रदेश की लोककला “नौटंकी” के प्रसिद्ध कलाकार हैं जिनके अश्लील और द्विअर्थी संवादों/गीतों कारण सभ्य समाज में उनकी स्वीकार्यता न के बराबर है।)
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