गुमनाम शायर कोरा कागज
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मेरे घर का ही एक हिस्सा, जो मैंने भी नहीं देखा….!
हाँ वो बुनियाद है जिसको, किसी ने भी नहीं देखा….!!
न जाने राज़ हैं, कितने छुपे, इसके लिफाफों में….!
न जाने बंद हैं, कितने ही किस्से, इसकी आँखों में….!!
ये मुझको जानती भी है, मुझे पहचानती भी है….!
मेरी हर एक आदत को, ये खुद में ढालती भी है….!!
मेरे हर ग़म से वाकिफ है, हसी भी याद है इसको….!
मेरी हर जिद्द के पीछे की, वजह को मानती भी है….!!
यहीं बीता है बचपन भी, जवानी की खुमारी भी….!
मेरे मासूम से सपनों की, पूरी जिंदगानी भी….!!
हाँ इस बुनियाद को मैंने, कभी अधूरा नहीं पाया….!
जब भी पाया है, अपने आप को, इसमें घुला पाया….!!
मेरे घर का ही एक हिस्सा………………..!
हाँ वो बुनियाद है जिसको………………..!!
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