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कल सुबह-२ आसपास से ढोल बजने की आवाज सुनाई दी. सोचा ये सुबह-२ ढोल किसके यहाँ बज रहा है? पड़ोस के एक घर में शादी भी है, तैयारी चल रही है, लेकिन सुबह-२ ढोल बजने का कोई औचित्य नहीं बनता है. बनता है भाई-हमारे यहाँ, मतलब हमारे देश में अक्सर तीज-त्योहारों पर कई लोग यहाँ-वहां से कुछ पाने की लालसा में लोगों के घरों में जाते हैं. कोई ढोल बजाता है, कोई तासा तो कोई सारंगी.
ऐसे ही वे दरवाजा-दरवाजा, गेट-गेट जाते हैं, खटखटाते हैं. जिसने दरवाजा खोला और अपनी ख़ुशी से कुछ दे दिया तब भी वे खुश और किसी ने दरवाजा नहीं खोला तो भी वे कुछ देर बाद अगले दरवाजे की ओर चले जाते हैं, तब भी वे खुश और किसी ने दरवाजा खोल के उन्हें ना कह दिया तब भी वे खुश ही रहते हैं. उनका किसी अमुक से कोई सम्बन्ध नहीं होता और न होता है कोई बैर.
हमारे तीज-त्यौहार उन्हें हमारे घरों की ओर ले आते हैं कि चलो तो सही कुछ न कुछ मिलेगा. कई बार ये दीन-धर्म आड़े आते हैं. ये लोग जब दरवाजा खटखटाते हैं तो इन्हें नहीं मालूम कि कौन धर्म का दरवाजा है. ये तो बस खटखटा देते हैं. सक्षम लोगों की त्योहारी उनकी सक्षमता से होती है, तो वहीं समाज के ऐसे लोगों की त्योहारी समाज के उस वर्ग पर होती है, जो उनसे अधिक सक्षम होता है.
वहां कोई धर्म-जाति, भाषा, लिंग, रंग आदि आड़े नहीं आता. ये हमारे ही देश में होता है और फिर लोग कुछ न कुछ उन्हें दे देते हैं और वे आगे बढ़ जाते हैं. रुपये, पैसा, कपड़ा और दूसरा कोई सामान जो उनके काम का हो आदि-आदि. आज ऐसे ही गेट खटखटाया गया और गेट खोलते ही एक महिला अपना ढोल लेकर गेट खुलते ही वहीं पर बैठकर बजाने लग गई. न कुछ कहा, न सुना. लेकिन समझ आ गया कि ये त्योहारी लेने आयीं हैं.
श्रीमती को कहा कि जो तुमसे बन पड़ता हो दे दो. कुछ पैसे, थोड़ा-सा आटा और क्या. क्या उसे ये कहते कि भई देखिये- हमारी तो दिवाली नहीं है और ईद-बकरीद दोनों अगले साल आएगी. नहीं ये नहीं सीखा. श्रीमती जी ने कुछ कपड़े भी निकाले. अपने भी और बच्चों के भी. सब देख महिला बहुत खुश हुयी.
“बिटिया का तो ३-४ साल की छुट्टी हो गई बहन जी…! और ई सूट भी बहुत अच्छे हैं. एक थैला भी दे दीजिये. ये लो थैला.” थैले में सारा सामान रख वह थैला कुछ समय के लिए यहीं रख मोहल्ले में आगे के घरों की ओर चली गयी. कुछ देर बाद आयी और ख़ुशी से अपना थैला लेकर चली गयी. चलो अपने से जो बना सो किया.
शायद ऐसा ही होता है हमारा भारत, आपका भारत और ऐसे ही होते हैं हमारे त्यौहार, आपके त्यौहार. हमारी ईद-आपकी ईद. आपकी दिवाली-हमारी दिवाली… और उन सभी ऐसे लोगों की दिवाली, जिनकी त्योहारी का जिम्मा समाज पर होता है. ये बहुत मुमकिन है कि समाज यदि ठान ले कि समाज की तमाम समस्याएं हल करनी हैं, तो कोई रोक नहीं सकता. वह भी बिना शासन प्रशासन के, लेकिन हम एक-दूसरे का मुंह जो ताकते हैं. आखिर समाज सुधार का ठेका तो महापुरुषों का ही हैं ना और महापुरुष कहाँ रोज-रोज घूमते फिरते हैं. सभी को दिवाली की ढेरों शुभकामनाएं.
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