पत्रकारिता महज एक पेशा भर नहीं है, बल्कि वह एक जागरूक समाज और व्यक्ति की पहचान है. पत्रकार का दायित्व बहुत विस्तृत है. समाज के लिए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जिस तरह आधारभूत स्तम्भ है, उसी तरह पत्रकारिता वह मचान है जहाँ से समाज की हर घटना का आंकलन कर उसे संभावित नुकसांन से बचाया जा सकता है. भारत जैसे देश के लिए तो पत्रकारिता का स्तर और भी व्यापक हो उठता है. यह पत्रकारिता ही है, जिसने भारत की आज़ादी में जनचेतना का मार्ग प्रशस्त किया था. आज हमारे देश में तमाम राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय, छोटे-बड़े अनेक पत्रकार मौजूद है. इन्ही में एक श्रेड़ी है- राजनीतिक पत्रकारों की. आजकल जो चलन चल रहा है, उसके अनुसार राजनीतिक पत्रकार वे है, जो राजनेताओं को कवर करते है, उनके साथ रहते है और उन्हें सलाह-मशविरा आदि देते है की कैसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं. ऐसे पत्रकार आधे समय पत्रकारिता करते है. जो लोग इन पत्रकारों को नहीं पहचानते या नहीं जानते है, यदि उन्हें ऐसे पत्रकारों से मिलवाया जाय तो वे लोग खासी मुश्किल में पड़ जायेंगे की जनाब पत्रकार है या कोई राजनेता, नेता या फिर छुटभैया नेता! आप कहेंगे की जनाब घोडा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या? तो आपको बता दे की कुछ घोड़े घास खाना ही नहीं चाहते. वे तो सत्ता की मलाई खाना चाहते है. ऐसे पत्रकार रात-दिन पोलिटीसिंयनस के बीच रहते है जिससे उनके अन्दर भी ये भावना आ जाती है की हम इन राजनेताओं को कवर करते है, क्यों न हम भी कवर हो जाय. वैसे भी हम तो इनसे बेहतर है. कुछ पत्रकार इसलिए नेताओं के साथ जुड़ते है की उन्हें अपने उद्योग-धंधे में सहायता मिलती रहे. उनको कोई समस्या आदि न आये. कुछ पत्रकारों के अन्दर तो यह इच्छा खुले रूप में होती है लेकिन कुछ के मन में यह इच्छा दबी हुई होती है की वे भी सत्ता में आ जाय. अर्थात अन्दर से तो वे किसी के लिए साफ्ट कोर्नर या सहानुभूति रखते है लेकिन ऊपर से दिखावा करते है की वे पत्रकारिता कर रहे है. वास्तव में अंदर ही अंदर वे भी सत्ता की मिठाई खाना चाहते है. यहाँ प्रश्न उठता है की क्या ऐसे लोग पत्रकारिता के साथ न्याय कर पाते है? आप कहेंगे की भैया या तो पत्रकारिता करो या फिर नेतागिरी. और ये भी सवाल उठता है की क्या राजनीती की मलाई खाने के बाद कोई पत्रकारिता कर सकता है? यदि हां तो केवल दिखावे के लिए. क्योकि लिखते समय कहीं न कहीं उसे लगेगा की वह तो उसका मित्र है या करीबी है और ऐसा लिखने पर कहीं वह नाराज़ न हो जाय. वहीँ दूसरी ओर ऐसे भी पत्रकार है जो इस पेशे को राजनीती से दूर रखे हुए है और स्वयं या अपने यहाँ काम करने वालों को पूरी छूट देकर रखते है. इसलिए क्या यह नहीं कहना चाहिए की मीडिया खुद को एग्ज़ामिन करने से डरता है? यदि किसी पत्र का संपादक या पत्रकार किसी पार्टी या नेता से जुड़ा हुआ है तो सवाल ही पैदा नहीं होता की वह निष्पक्ष पत्रकारिता कर सके. यह तय है की उसकी लेखनी का झुकाव उस ओर अवश्य ही होगा. आप ऐसे उदहारण देख सकते है. लेकिन आपको मालूम तो होगा ही की हमारे देश में ही लेफ्ट हो या राईट, इनसे जुड़े समाचार पत्रों का झुकाव उनकी पार्टी या उनके विचार आदि की ओर ही होता है न की निष्पक्षता के आधार पर पत्रकारिता होती है. वास्तव में यह तो पत्रकारिता के साथ सरासर बेईमानी है. या तो आप राजनीती कीजिये या फिर पत्रकारिता ही कीजिये. अतः यही कहा जाना चाहिए की ऐसे लोगों को एक दाएरे के अन्दर रहना चाहिए. नैतिकता के अन्दर रहते ही पत्रकारिता करे. देश स्तर की बात करे तो ऐसे बहुत से पत्रकार है जो ऊपर से तो नैतिकता बघारते है लेकिन अन्दर से वे सरकारी स्तर पर नामांकित होने के लिए पूरा जोर मारते है. ऐसा नहीं है की अच्छे लोग मीडिया में नहीं है लेकिन वे हाशिये पर ही अधिक है. अतः उन्हें आगे आना चाहिए और कुछ को प्रोत्साहित करके आगे लाना चाहिए. कही न कही मीडिया को एक सुधार की जरुरत तो है ही.
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