‘३ मई प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ मीडिया की ताकत तलवार से भी ज्यादा लेकिन तब जब दिशा में चले
Proud To Be An Indian
149 Posts
1010 Comments
प्रति वर्ष ३ मई को प्रेस स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है. प्रेस की परिभाषा आज विस्तृत हो गई है. मीडिया का निरंतर विस्तार हो रहा है. प्रेस के महत्त्व को सरकार से अधिक आँका गया है. खासकर एक लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में. शायद इसी कारन भारतीय लोकतंत्र में प्रेस की स्वतंत्रता का पूरा ख्याल रखा गया है. प्रेस की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद १९(१)(क) के अंतर्गत दे गई वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में अंतर्निहित है तथा एक व्यक्ति न केवल अपने विचारों के प्रचार का अधिकार रखता है, वरन चाहे मौखिक रूप से या लिखित रूप से उनको प्रकाशित, प्रसारित तथा परिचालित करने का अधिकार भी रखता है. लेकिन साथ ही यह भी कहा गया है की प्रेस की स्वतंत्रता निरंकुश नहीं है. बल्कि उस पर हर प्रकार से उचित प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है. प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों ही ने अपना चहुमुखी विकास किया है. आज सूचना क्रांति और वेश्वीकरण के इस दौर में मीडिया के महत्तव से इंकार नहीं किया जा सकता है. मीडिया आज मानव जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित कर रहा है. प्रेस को लोकमत का सुधारक और समाज में सृजनशील माहौल का निर्माणकर्ता कहा जाता है. स्वतंत्रता संग्राम में लोगों को जागरूक करने का काम प्रेस ने ही किया था.
———————————————————————————————————————————————–
आज प्रेस की भूमिका का दायरा असीमित हो गया है. यही कारन है की प्रेस की स्वतंत्रता की बात पर हम बेबाकी से नहीं बोल पाते है. जिस मीडिया को हमने जनतंत्र का आधार माना आज वही जनता को वह सब पढ़ने और दिखाने-सुनाने लगा है, जिसका काफी हद तक कोई औचित्य ही नहीं होता है. तेजी से बढ़ते चेनलों का प्रभाव ये हुआ है की पहले जिसे जनता या दर्शक कहा जाता था अब वह स्पर्धात्मक प्रायोजन और विज्ञापन के खुले विश्व बाज़ार में उपभोक्ता बना दिया गया है. हर चैनल दर्शक खींचने की होड़ में लगा है. कारण भी है- जितने दर्शक- उतने उपभोक्ता और फिर उसी अनुपात में विज्ञापन के भाव होंगे. इस प्रकार हर चैनल इस दर्शक / उपभोक्ता को पहले अपने कार्यक्रम में लुभा कर आकर्षित करता है और फिर चुपके से इस भोले दर्शक / उपभोक्ता को किसी कार्पोरेट के किसी साबुन, तेल, सेम्पू के ब्रांड के हाथो बेच देता है. इसका परिणाम यह हुआ है की जनहितकारी प्रशारण ख़त्म से हो गए है. जनता को शिक्षा देना, विकास में शामिल करना आदि लक्ष्य अब दूरदर्शन से भी गायब हो गए है. मीडिया की माने तो दर्शक जो चाहता है ये वही परोसते है. इनका क्या कुसूर ? चैनलों ने उपभोक्ता क्रांति को जनम दिया है. नकली और दिखावटी जरूरतें बढ़ी है. भीषण स्पर्धा का भाव, हिन्शावादी आचरण, ताकत का बोलबाला इत्यादि पूंजीवादी मूल्य जनजीवन में स्वीकृत होने लगे है. परस्परता, सामूहिकता, करुणा, अहिंसा, सहनशीलता के भाव कमजोर हुए है. समाचारों में जनता तभी दिखाई देती है जब वह किसी ताकतवर का शिकार बनती है. अधिकतर समय वी वी आई पी, नेताओं, सेठों, दिखावटी सामाजिक वक्ताओं, अपराधियों, ढोंगी धार्मिक नेताओं ने ले रखा है. चर्चाओं और बहशों में जो तात्कालिक उत्तेजना पैदा की जाती है वह किसी झोंटा-झोटावल का आनंद देती है. चर्चाओं और बहशों में जनता बुलाई गई औडिएंस भर होती है. महिलाओ की जटिल जीवन परिस्थितिओं की जगह हर समय सजी संवरी सेक्सीपन पर जोर दिया जाता है. प्रसारण के विकासमूलक मानवीय तथ्य गायब कर दिए गए है. आज टी वी पर चरित्र मरते है और पात्र जवान रहते है. इसलिए आज जरुरत है की मीडिया अपनी स्वतंत्रता से पहले अपने दायित्व पर निगाह डाल ले.
———————————————————————————————————————————————–
हमें समझना चाहिए की मीडिया कोई पेशा भर नहीं है बल्कि उससे कहीं बड़ी चीज है. यह एक जीवन मूल्य है, जीवन दृष्टि है. लोक शिक्षण और लोक जागृति का साधन है. यह एक प्रकार की सेवा का व्रत है, जो निस्वार्थ और निर्लिप्त भावना से करना पड़ता है. वर्तमान दौर में मीडिया अपनी प्रभावी पहल तभी रख सकता है जबकि उसके एथिक्स में सेवा, आदर्शवादिता, निष्ठां ओ लगन हो. आधुनिक कल में प्रेस मानव मूल्यों की गरिमा बनाये रखने तथा मनुष्य के राजनैतिक और सामाजिक अधिकारों की रक्षा करने का एक सशक्त मद्ध्यम मन जाता है. मीडिया का प्रभाव यदि हमें देखना है तो हम देख सकते है की मीडिया द्वारा प्रचारित उल जूलूल विज्ञापनों का हमारी पीढी पर, हमारे बच्चो पर कितना दुस्प्रभाव पद रहा है. आज एक बच्चा आलू की सब्जी खाने से मन कर देता है, वहीँ दूसरी तरफ अंकल चिप्स के लिए सड़क पर लेट कर हाथ करता है. भौतिक साजो सामान को बेचने के लिए महिला सशक्तिकरण के नाम पर महिलाओ का जमकर शाशन हो रहा है और लगभग हर शेत्र में नारी का अमर्यादित इस्तेमाल किया जा रहा है. यहाँ तक की पुरुष प्रयोगार्थ बनाई गई वस्तुओं के विज्ञापनों में भी अर्धनग्न महिलाओ को दिखाया जाता है. जबकि दुर्भाग्य से कुछ प्रगतिशील महिलाएं इसमें अपना भला देखती है. ये मीडिया के प्रस्तुतीकरण का दुखद परिणाम है. मीडिया हमारे सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित जीवन पद्दति को सम्यक प्रस्तुत करने के बजाय उसमे निहित जीवनोपयोगी तथ्यों के या तो नकारात्मक प्रगटीकरण में लिप्त रहता है या फिर उसके व्यावसायिक दोहन में लगा रहता है. जैसे-२ मीडिया का विस्तार हो रहा है वैसे-२ इसमें आने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ रही है . अब तो मीडिया वाले निशाना भी बनाये जाने लगे है. इसलिए प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर एक सारगर्भित चर्चा और बहस की जरुरत खासा महत्तव रखती है. मीडिया की भूमिका निर्धारित करने में समाज की भागीदारी भी कम नहीं है. मीडिया अभिव्यक्ति का एक बेहतरीन मंच है इसलिए समाज और मीडिया दोनों को मिलकर इस बहस को एक बेहतरीन उपसंहार की ओर ले जाना है ताकि मीडिया समाज हित में और अधिक काम कर सके.
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments