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बेशक हिंदी ब्लोगिंग, हिंदी को न केवल इसका मान दिलाने में सार्थक सिद्ध होगी, अपितु ऐसा हो रहा है. आज हिंदी के प्रति हमारा यह प्रेम, आकर्षण और समर्पण ही तो है कि हम इसके मान-सम्मान के प्रति चिंतित है, इस पर गहन विचार-विमर्श कर रहे हैं, आज इस मंच पर देश ही नहीं दुनिया भर से तमाम लोग अपने-२ विचारों को रख रहे हैं, तो क्या वे सभी निष्फल रहेंगे ? नहीं. कदापि नहीं. पेड़ से फल की इच्छा हो तो पहले पौधा लगाना पड़ता हैं. यदि पौधा लगा दिया, उसकी सेवा-सुश्रुषा कर दी तो कोई ताकत उसके फल और उसकी छाया से हमें महरूम नहीं कर सकती. आज हिंदी की उपेक्षा हो रही है, बाज़ार उसे भुना रहा है. आज़ादी की लड़ाई में भले ही हिंदी ने अग्रणी भूमिका निभाई हो लेकिन आज हिंदी को उसका स्थान भी नहीं मिल पा रहा है. आज हिंदुस्तानी ही हिंदी से दूरी बनाने लगे हैं. वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में अपनाई गयी अंग्रेजी आज हमारे युवाओं को अपडेट और हमारी खुद की हिंदी भाषा आउटडेटेड लगने लगी है. यही कारण है कि आज हमें हिंदी की अस्मिता और वर्चस्व की स्थापना का प्रयास करना आवश्यक लगने लगा है.
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आज हिंदी को स्वयं अपनी जगह बनानी होगी. हिंदी भाषी क्षेत्र इतना विशाल है कि वाणिज्य व्यापार क्षेत्र की देशी-विदेशी हस्तियों के लिए उसकी उपेक्षा करना मुश्किल है. हिंदी भाषी लोगों को नव निर्माण की भाषा बनाना होगा. हिंदी के उत्थान के लिए सरकार की नहीं वरन जनता के दिल को जीतने की जरुरत है. आचार्य रविन्द्र नाथ ठाकुर की इस उक्ति को सच होने की आशा की जा सकती है- “जिस हिंदी भाषा के खेत में ऐसी सुनहरी फसल फली है, वह भाषा कुछ दिन भले ही यों ही पड़ी रहे परन्तु उसकी स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहां फिर खेती के सुदिन आयेंगे और पौष मॉस में नवरात्र उत्सव होगा.”
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५ जुलाई १९२८ को यंग इंडिया में गाँधी जी ने लिखा था- “यदि मै तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा का दिया जाना बंद कर देता. सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएँ अपनाने के लिए मजबूर कर देता. जो आनाकानी करते, उन्हें बर्खास्त कर देता. मै पाठ्य-पुस्तकें तैयार किये जाने तक इंतजार नहीं करता.”
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इससे पहले बाल गंगाधर तिलक ने कहा था- “अभी जितनी भी भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं, उनमे हिंदी ही सर्वत्र प्रचलित है. इसी हिंदी को भारतवर्ष की एकमात्र भाषा स्वीकार कर ली जाये तो सहज ही में एकता संपन्न हो सकती है.”
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इसके बावजूद आज हिंदी को उसका स्थान, मान-सम्मान नहीं मिल रहा है. हमें हिंदी कि वैसी जरुरत महसूस नहीं हो रही है, कि इसके बिना हमारा काम ही नहीं चल सकता. हमारे नीति-नियंता इसकी बहुत अधिक परवाह नहीं करते हैं. औचारिक्तायें उनकी अधिकांश भूलों पर पर्दा डालने का काम कर देती हैं. और जब काम चल जाये तो फिर परवाह क्यों और किसकी ! हमारी मानसिकता में ही हिंदी का दर्जा सर्वोपरि नहीं है. जो चल रहा है, हम भी उसके साथ चल रहे हैं. ऊँचा पद, ऊँची कुर्सी, ज्यादा पैसा, रुतबा आदि तो अंग्रेजी ही दिल रही है न, फिर हिंदी ! रही बात हिंदी कि चिंता और इसे आगे लाने की तो वह काम इतना आसान नहीं है.
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कोई भी आन्दोलन शुरू तो चंद लोगों द्वारा होता है, लेकिन उसे सिरे आम जनता ही चढ़ती है. इतिहास गवाह है कि बड़ी-२ क्रांतियाँ आम जनता के आने पर ही हुयें हैं. जैसे-२ हिंदी की चिंता बढ़ी है, वैसे-२ हिंदी ब्लोगिंग को अपनाने वाले भी बढे हैं. इनमे आम और माध्यम वर्गीय लोग ही ज्यादा हैं. हिंदी को अपनाने वाले आज भी इस देश में ८० फ़ीसदी के करीब हैं. ऐसे में हिंदी ब्लोगिंग क्यों बढ़ रही है, समझा जा सकता हैं. इसलिए यदि ये आश जगती है कि हिंदी ब्लोगिंग हिंदी को मान दिलाने में सार्थक हो सकती है तो कुछ गलत नहीं है. लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी सिक्के के दो पहलू होते हैं. एक और हिंदी ब्लोगिंग का दायरा बढ़ रहा है तो दूसरी और बाज़ार की नज़र भी इसे भुनाने में लगी है, वह ऐसा कर भी रही है. यह स्वाभाविक है. बस यहीं पर ध्यान देने वाली बात है कि हमें संतुलन बनाना होगा, बाज़ार के हाथो का मोहरा नहीं बनना होगा. हिंदी ब्लोगिंग अपनाने वाले, इसको प्रचारित-प्रसारित करने वाले तमाम लोगों को यह बात समझनी होगी. बस फिर सकारात्मक सोच के साथ “उम्मीद पर दुनिया कायम है”. निश्चित ही हिंदी ब्लोगिंग हिंदी को मान दिलाने में सार्थक हो सकती है और यह बाज़ार का हिंस्सा नहीं बनेगी.
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हिंदी ब्लोगिंग से यह उम्मीद है क्योकिं इस भाग-दौड़ वाली जिंदगी में हर एक व्यक्ति जल्दी-२ ही सही अपने को कहीं-न-कहीं अभिव्यक्त करना चाहता है. अपने मन में चल रहे गुबार को उडेलना चाहता है, इसके लिए गहन साहित्यिक नज़रिए के बिना भी वह हिंदी ब्लोगिंग के जरिये आसानी से कहीं भी खुद को अभिव्यक्त कर पा रहा है.
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