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मुज्जफरनगर दंगों ने बदला सियासी परिदृश्य

वैचारिकी
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उत्तरप्रदेश की अखिलेश सरकार इन दिनों पुनः उसी स्थिति से दो चार हो रही है जो उसके समक्ष २००९ में आई थी। दरअसल लोकसभा चुनाव के दरमियान सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने भाजपा के पूर्व कद्दावर नेता और हिंदुत्व की कट्टर छवि के पैरोकार कल्याण सिंह को साइकिल की सवारी क्या करवाई, पार्टी का मुस्लिम वोट-बैंक छिटककर हाथ से हाथ मिला बैठा। गुस्सा भी ऐसा था कि सपा हाईकमान के पसीने छूट गए। मुलायम सिंह खुद दारूल उलूम देवबंद में उलेमा को मनाने पहुंचे थे। मुस्लिमों को टिकट भी खूब दिए गए थे। उस वक़्त की नजाकत और अपने छिटकते जनाधार को भांपते हुए मुलायम सिंह ने कल्याण को तत्काल बाहर का रास्ता दिखा दिया। २०१३ में हालांकि कल्याण जैसी गलती मुलायम या अखिलेश दोनों ने नहीं की किन्तु मुज्जफरनगर के कवाल गांव से शुरू हुए दंगों और उनके बाद की सियासत ने सपा को २००९ के समीकरणों की ओर मोड़ दिया है। एक माह पूर्व अयोध्या में चौरासी कोस की विहिप की यात्रा की हवा निकाल कर सपा ने मुस्लिमों में जो विश्वास उत्पन्न किया था वह अब नदारद है। राजनीतिक प्रेक्षकों की मानें तो उत्तरप्रदेश में सपा-भाजपा की मिलीभगत से वोट के ध्रुवीकरण की कोशिशें जारी हैं। सपा तो उम्मीद थी कि इससे मुस्लिम वोट का एकमुश्त झुकाव उसकी तरफ होगा और हिंदुत्व की नाव पर सवार भाजपा अन्य वर्गों के वोट बटोर ले जायेगी। कुल मिलाकर कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी; दोनों को प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर पटकने की तैयारी थी मगर दंगों की विभीषिका ने मुलायम सिंह की राजनीतिक पैंतरेबाजी को कुंद कर दिया। हालात ये हैं कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश में जाट-मुस्लिम समीकरण जो किसी समय सपा की ताकत हुआ करता था; बिखरता नज़र आ रहा है। इससे पहले २००४ के चुनाव में सपा का रालोद से गठबंधन था। तब जाट-मुस्लिम कार्ड खूब चला था। प्रदेश से कुल ११ मुस्लिम सांसद चुने गए थे जिनमें से सपा से सात सांसद थे। शायद उसी समीकरण को ध्यान में रखकर इस बार भी तैयारी की गई थी। जाटों को रिझाने के लिए सोमपाल शास्त्री (बागपत), अनुराधा चौधरी (बिजनौर), सुधन रावत (गाजियाबाद) को टिकट दिए गए। राजेन्द्र चौधरी को काबीना मंत्री बनाया गया। बाद में अनुराधा का टिकट कटा, तो लालबत्ती दी गई। बागपत में पूर्व विधायक साहब सिंह को भी राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया लेकिन अचानक से खेल ऐसा बिगड़ा कि अब जाट और मुस्लिम दोनों ही सपा से नाराज बताए जा रहे हैं। शायद इसीलिए सोमपाल शास्त्री ने मुजफ्फरनगर हिंसा को वजह बताकर बागपत से टिकट लौटा दिया है।  हालांकि जाटों की नाराजगी के बीच अब मुस्लिमों को मनाने के लिए तमाम फंडे अपनाए जा रहे हैं। वैसे ही जैसे २००९ के बाद कोशिशें की गई थी। एक ओर तो सहारनपुर के पूर्व विधायक इमरान मसूद को सपा में लाया गया है वहीं दूसरी ओर बागपत से गुलाम मोहम्मद को पार्टी ने टिकट दिया है। यह भी माना जा रहा है कि जल्द ही सपा के मुस्लिम प्रत्याशियों की लिस्ट थोड़ी और लंबी हो सकती है। जाटों की नाराजगी मात्र सपा से ही नहीं है। जाट रालोद प्रमुख अजित सिंह से भी नाराज बताए जाते हैं। चूंकि दंगों के दौरान अजित सिंह ने अपनी बिरादरी का अपेक्षानुरूप साथ नहीं दिया लिहाजा इस बार अजित सिंह भी अपने वोट बैंक को लेकर चिंतित हैं। वैसे भी रालोद के प्रदेश में बिजनौर, बागपत और मथुरा में ही सिटिंग एमपी हैं जिनमें से बागपत अजित सिंह का गढ़ है तो मथुरा में उनके बेटे जयंत की बादशाहत है। पर समय का फेर ऐसा पड़ा की बागपत और मथुरा में ही दोनों की सियासत उखाड़ने लगी है।

सपा और रालोद के इतर भाजपा ने इस क्षेत्र को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है। रालोद और सपा के मुस्लिम-जाट समीकरण में डिफेक्ट और गांवों तक दिख रहे मोदी इफेक्ट के चलते भाजपा लोकसभा चुनाव में परफेक्ट दिखना चाहती है। शुरू से ही भाजपा नेताओं के कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़े रहने के कारण पार्टी की जाटों के बीच बढ़त दिख रही है। साथ ही भाजपा की भारतीय किसान यूनियन से नजदीकियां भी लगातार बढ़ती चली जा रही हैं। दंगों के बाद गांवों तक का माहौल भाजपा की उम्मीदों को हवा दे रहा है। इस मौके को भाजपा गंवाना नहीं चाहती है। हालांकि इस क्षेत्र से भाजपा की ओर से कितने जाट प्रत्याशी होंगे यह तय नहीं है किन्तु इतना निश्चित है कि पार्टी जाटों की रालोद और सपा से नाराजगी को भुनाने का मन बना चुकी है। वहीं सपा से नाराज बताए जा रहे मुस्लिमों पर कांग्रेस की नजर लग गई है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का मुज्जफरपुर दौरा और मुस्लिमों के आंसू पोंछना इसी राजनीति का संकेत है। आने वाले दिनों में केंद्र क्षेत्र के प्रभावित मुस्लिमों के लिए और भी कल्याणकारी घोषणाएं कर सकता है। जहां तक बात बसपा की है तो इस क्षेत्र से इसके मुस्लिम सांसद और विधायक दंगों के दौरान अपने वोट बैंक को थामे रखने में कामयाब हुए हैं। फिलहाल मुज्जफरनगर, सहारनपुर और संभल में बसपा सांसद हैं और बदलती राजनीति के चलते बसपा सांसदों की सूची आने वाले दिनों में लंबी भी हो सकती है। बसपा भी अपने सांसद कादिर राणा के खिलाफ सपा सरकार की ओर से लिखवाई गई एफआईआर का विरोध कर मुस्लिमों को अपने पाले में करने की पुरजोर कोशिश करेगी। कुल मिलाकर पश्चिमी उत्तरप्रदेश में राजनीतिक परिदृश्य जैसा दिख रहा था अब उसमें काफी बदलाव आएगा। दंगों ने आम आदमी के साथ ही राजनीतिक दलों की सांसें भी फुला दी हैं। चूंकि अब इस क्षेत्र में माहौल बदल चुका है लिहाजा सभी दल अपनी राजनीतिक गोटियां फिट करने में मशहूल हो गए हैं। देखना दिलचस्प होगा की जाट-मुस्लिम समीकरण से इस बार कौन बाजी मारता है?

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