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राहुल-प्रियंका की जुगलबंदी से होगा बदलाव?

वैचारिकी
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rahul priyanka

देश की सबसे पुरानी पार्टी इन दिनों संक्रमण काल से गुजर रही है| केंद्र में १० वर्षों तक गठबंधन सरकार चलाने की कीमत उसे अपनी कमजोरियों की फेहरिस्त को सार्वजनिक होने से चुकाना पड़ी है| फिर हाल ही में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार ने उसके सांगठनिक ढांचे को छिन्न-भिन्न कर दिया है| एक ऒर भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी तो दूसरी ऒर भानुमति का कुनबा बनती जा रही आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल; उसे दोनों से जूझना पड़ रहा है| कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ का नारा बदलते वक़्त में अपनी प्रासंगिकता खो चुका है| कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी अपनी नाकामयाबियों से उबरने में नाकाब रहे हैं| ऐसे में चेहरा बदलने की जिद के चलते तमाम कयासों के बीच पार्टी की ओर से प्रियंका गांधी के राजनीतिक पदार्पण की मुहिम को दशा-दिशा मिल गई है| अब प्रियंका अपने भाई राहुल की राजनीति को एक नए मुकाम तक पहुंचाने की जद्दोजहद करेंगी| उन्होंने इसकी शुरुआत भी कर दी है| राहुल के घर में कांग्रेस के थिंक टैंक माने जाने वाले वरिष्ठ नेताओं के साथ उनकी चर्चा को इसी परिपेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है| राहुल को बतौर युवा कार्ड खेलने से अपने हाथ जला चुकी पार्टी के पास प्रियंका के रूप में कथित तुरुप का इक्का है जिसे अब निकालना बेहद आवश्यक हो गया था| प्रियंका का राजनीति में पदार्पण सोची-समझी राजनीति का हिस्सा है| हालांकि अभी उन्हें राहुल की कथित कठिन राजनीतिक राह को आसान बनाने और संगठनात्मक जिम्मेदारियों के तहत आगे किया जाएगा| वैसे भी आम आदमी पार्टी, साम्प्रदायिकता, एफडीआई, आर्थिक सुस्ती जैसे मुद्दों से निपटने के लिए बड़े-बड़े कांग्रेसी जतन कर रहे हैं और देर-सवेर उन्हें इसमें कामयाबी भी मिल जाएगी किन्तु घुन लग चुके संगठन की हालत को कौन और कैसे पटरी पर लाएगा? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि राहुल गांधी का करिश्माई व्यक्तित्व भी संगठन में प्राण नहीं फूंक पाया है और जहां तक सोनिया गांधी की नेतृत्व क्षमताओं का सवाल है तो यक़ीनन वे कांग्रेस की सर्वेसर्वा हैं और उनकी इच्छा के बिना पार्टी में पत्ता भी नहीं हिलता किन्तु वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए संगठनात्मक कमजोरियां छुपाए नहीं छुप रहीं| सवाल यह उठता है कि क्या राजनीति में अपेक्षाकृत कम अनुभवी प्रियंका को संगठन की भावी बागडोर सौंपने हेतु ही परदे के पीछे से आगे लाया जा रहा है? प्रियंका की पार्टी में बढ़ती राजनीतिक सक्रियता से जेहन में एक सवाल और उठता है कि क्या रायबरेली की जनता अगली बार सोनिया की बजाए प्रियंका को जिताती नज़र आएगी?

१२७ वर्ष पुरानी पार्टी के समक्ष इन दिनों जो हालात उभरे हैं व जिस तरह की स्थितियां बनती नज़र आ रही हैं, वैसी १९६९ तथा १९७५ के दौर में भी नहीं थीं| आज पार्टी का कार्यकर्ता हताश है| नीचे से ऊपर तक ऐसा कोई नज़र नहीं आता जिसपर दांव लगाया जा सके| प्रियंका का कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय रूप से उतरना पार्टी के लिए संजीवनी का काम कर सकता है| वैसे यह कोई पहली बार नहीं कि प्रियंका की राजनीति में आमद को पार्टी ने भुनाया न हो| इससे पहले उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र प्रियंका को अमेठी-रायबरेली लोकसभा सीटों में प्रचार के लिए भेजा गया था जहां उन्होंने गांधी-नेहरु परिवार से जुडी भावुकता को जमकर कैश करवाया| यहां तक कि वे अपने दोनों बेटों को लेकर सियासी मंच पर दिखाई दीं| इतना ही नहीं उनके पति राबर्ट वाड्रा भी युवाओं के हुजूम के साथ मोटरसाइकिल रैली निकालते दिखे| कुल मिलाकर प्रियंका को ऐसे प्रमोट किया गया मानो उनका कद अपने भाई राहुल गांधी से भी उंचा हो| प्रियंका के राजनीति में उतरने के शोर में कांग्रेस कार्यकर्ता नारे लगाते नहीं थकाते थे कि प्रियंका लाओ-कांग्रेस बचाओ| यह वही कांग्रेसी थे जिन्होंने एक समय राहुल को बड़ी जिम्मेदारी देने का इतना दबाव बनाया था कि राहुल अपनी क्षमताओं से इतर कमजोर साबित होते गए| हालांकि प्रदेश की जनता ने प्रियंका की आमद को कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी और अमेठी-रायबरेली क्षेत्र में भी उनका जादू नहीं चला| तब प्रियंका को राजनीति में लाने की क्या मजबूरी है? प्रियंका हमेशा भाई राहुल के राजनीतिक भविष्य की खातिर खुद को राजनीति से दूर रखती आई हैं पर अब जबकि पार्टी की ओर से उनको राजनीति में लाने के संकेत मिल चुके हैं तो राहुल-प्रियंका की तुलना का खाका भी तैयार हो चुका होगा, जिससे राहुल, प्रियंका सहित सोनिया भी अवगत होंगी पर कांग्रेस के भविष्य की खातिर यह परिवार अब खतरे मोल लेने को तैयार है| हां, इतना अवश्य है कि प्रियंका के राजनीति में उतरने से राहुल-प्रियंका खेमे का निर्माण होने की संभावना है जिससे कांग्रेसी चाणक्य जरूर आशंकित होंगे| फिर भी प्रियंका का कांग्रेस के संगठनात्मक अस्तित्व की लड़ाई में साथ देने आना कांग्रेस में ताजा हवा के झोंके की तरह प्रचारित किया जा रहा है और प्रियंका के भावी भविष्य व प्रदत्त जिम्मेदारियों का गंभीर आकलन किया जा रहा होगा|

दरअसल प्रियंका को परदे के पीछे से ही सही मगर सक्रिय राजनीति में आगे लाने की कई वजहें हैं| प्रियंका की छवि और उनके हाव-भाव उनकी दादी इंदिरा गांधी से मिलते नज़र आते हैं| जनमानस उनके आकर्षण में खिंचता चला आता है| भीड़ भी वोट के रूप में परिवर्तित होने की क्षमता रखती हैं| फिर पूरी कांग्रेस पार्टी में भी प्रियंका को लेकर एक मत है कि उन्हें सक्रिय राजनीति में लाने से पार्टी को लाभ ही होना है| वैसे भी कांग्रेस का भविष्य राहुल-प्रियंका के हाथों में है तो प्रियंका के राजनीतिक पदार्पण में अनावश्यक देरी क्यों? प्रियंका को राजनीतिक रूप से परिपक्व होने में समय लगेगा और उनकी सक्रियता की घोषणा का वक्त देखते हुए कहा जा सकता है कि कांग्रेस अब लुभावने चेहरों को जनता के बीच लाने की तैयारी में है ताकि मोदी और केजरीवाल जैसों की दावेदारी के तिलिस्म को भेदा जा सके| प्रियंका की राजनीतिक समझ पर यूं तो ढेरों सवाल उठाए जा सकते हैं व उनसे भविष्य के भारत के खाके के बारे में पूछकर उनकी आमद को बिगाड़ा जा सकता है पर यह तो सत्य है कि आकर्षण पैदा करने के मामले में उनका कोई सानी नहीं है| स्वाभाविक भावुक अभिनय, शालीनता, आदर-सम्मान आदि प्रियंका के ऐसे हथियार हैं जो राजनीति में उनकी अल्पकालीन राह को तो आसान कर सकते हैं किन्तु दूरगामी पथ तक उनका साथ नहीं दे सकते| प्रियंका के पास राजनीति में खोने के लिए भी बहुत कुछ है और पाने के लिए सारा आसमान पड़ा है| यह प्रियंका के ऊपर निर्भर करता है कि वे किस प्रकार स्वयं के तिलिस्म को जिन्दा रखते हुए कांग्रेसियों को एकजुट रख पाती हैं और सक्रिय राजनीति में उनकी भागीदारी उनकी उड़ान को कहां तक ले जाती है? फिलहाल तो प्रियंका की राजनीतिक आमद ने कांग्रेस समेत अन्य दलों के भीतर हलचल मचा दी है और अंदरखाने सभी अपने नफे-नुकसान में व्यस्त होंगे| अब इंतजार है १७ जनवरी का जब राहुल और प्रियंका के भावी राजनीतिक भविष्य पर पुख्ता मुहर लगेगी|

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