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भाजपा को दिखाना चाहिए बड़प्पन

वैचारिकी
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sena bjpसन 1980 में महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में भारतीय जनता पार्टी की नींव रखी गई थी, तब उसके कर्ताधर्ताओं को शायद ही यह अनुमान रहा होगा कि मुंबई का ही ‘मातोश्री’ उनके अच्छे दिनों के लिए दु:स्वप्न बन जाएगा। बड़े भैया की संज्ञा प्राप्त शिवसेना न तो बड़प्पन दिखाने को तैयार है और न ही छोटे भैया यानी भाजपा का हठ समाप्त हो रहा है। यानी, दोनों ही में अपने-अपने फायदे और नुकसान को लेकर खींचतान मची है। बात सीटों के बंटवारे से शुरू होते-होते अब संभावित मुख्यमंत्री पद के दावेदार तक पहुंच चुकी है।वैसे भी शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के निधन के बाद पहली बार महाराष्ट्र में होने जा रहे विधानसभा चुनाव कई मायनों में अनूठे साबित होने जा रहे हैं। महाराष्ट्र संभवत: देश का एकमात्र राज्य है, जहां सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों गठबंधन की बैसाखी पर हैं। कांग्रेस-राकांपा की वर्तमान सरकार राज्य में जबर्दस्त एंटी इन्कम्बैंसी का सामना कर रही है और इसी के चलते ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भाजपा-शिवसेना गठबंधन राज्य की सत्ता में वापसी करने वाला है, पर जो अभी स्थिति दिखाई दे रही है, क्या वही अंतिम सत्य है? ऐसा लगता तो नहीं है।महाराष्ट्र के चारों बड़े दलों में गठबंधन को लेकर मतभेद उभर आए हैं। सीटों के बंटवारे को लेकर कोई भी दल झुकने को तैयार नहीं है। शिवसेना और भाजपा का मामला तो संबंध विच्छेद तक जा पहुंचा है। ऐसा नहीं है कि दोनों के बीच सीटों को लेकर पूर्व में झगड़े और अलगाव की नौबत तक वे न पहुंचे हों, किंतु स्व. बाल ठाकरे और स्व. प्रमोद महाजन के संयुक्त प्रयासों ने राजनीतिक तलाक की इस प्रक्रिया को काफी हद तक रोके रखा था। अब दोनों ही चेहरे राजनीति में नहीं हैं और जो हैं, उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा उन्हें बाला साहब और महाजन जैसा नहीं बना सकती, लिहाजा रार बढ़ती ही जा रही है।बाल ठाकरे ने राजनीति में पद न लेकर जो शुचिता कायम की, शिवसेना उसका उल्लंघन कर रही है, तो वहीं शिवसैनिकों के बलबूते राज्य में मजबूत हुई भाजपा अहसान मानना तो दूर, उलटे उसी पर आंखें तरेर रही है। ऐसे में दोनों को फायदा कम और नुकसान ज्यादा है। वैसे भी महाराष्ट्र में सेना-भाजपा की अलग-अलग कल्पना नहीं की जा सकती और यदि दोनों दलों के नेतृत्व को यह लगता है कि वे राह अलग कर सत्ता पा लेंगे तो यह उनकी गलतफहमी है। दोनों का अपना संयुक्त वोट बैंक है और अलग होने पर वह निश्चित रूप से बंटेगा, जिसका बड़ा फायदा राकांपा को होगा। फिर, राज ठाकरे भी सेना को नुकसान पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। कुल मिलाकर नुकसान सेना-भाजपा गठबंधन का होना तय है। अगर किसी तरह से सीटों को लेकर दोनों दलों में सहमति बन भी जाती है और इनका गठबंधन महाराष्ट्र में सत्तासीन होता है, तो मंत्री पदों और उनके विभागों से लेकर ‘मुख्यमंत्री कौन’ का मुद्दा अहम हो जाएगा। ‘मुख्यमंत्री कौन’ के चक्कर में ये दोनों पूर्व में भी सत्ता से दूर हो चुके हैं। ऐसे में दोनों के बीच ऐसा फामरूला बनना चाहिए, जिससे दोनों ही दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति हो सके।


कायदे से तो महाराष्ट्र की सत्ता पर पहला और स्वाभाविक हक शिवसेना का बनता है। चूंकि भाजपा केंद्र में सत्तासीन है और यदि वह महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री का पद सेना को देती है, तो यह उसका बड़प्पन होगा, किंतु भाजपा पर जिस तरह मोदी-शाह की छाप पड़ती जा रही है, इसके हिसाब से तो भाजपा से ऐसी दरियादिली की उम्मीद करना बेमानी है। स्व. बाल ठाकरे ने एक बार महात्मा गांधी को गुजराती बनिया कहा था। उनका महात्मा गांधी को यह कहना किस रणनीति के तहत था, इससे सभी वाकिफ हैं। अब जबकि दो गुजराती नरेंद्र मोदी और अमित शाह भाजपा का चेहरा बन चुके हैं, तो स्व. बाल ठाकरे का कथन वर्तमान स्थिति में सत्य साबित होता दिख रहा है।मोदी तो अपनी जापान यात्र में खुद को गुजराती बनिया कह ही चुके हैं और शेयर मार्केट के कारोबारी के रूप में अमित शाह का अतीत भी बनियागिरी का ही रहा है। जिस तरह बनिया अपने नफा-नुकसान को लेकर अति संवेदनशील रहता है, उसी तरह से शाह और मोदी भी शिवसेना के विरोध से उपजने वाले संभावित नफा-नुकसान का आकलन अवश्य कर रहे होंगे।उत्तराखंड, बिहार, उत्तरप्रदेश, गुजरात और राजस्थान में हुए नुकसान को देखते हुए यह अवश्यंभावी भी है, और यदि ऐसा नहीं होता है, तो यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि 15 वर्षो से सत्ता से दूर सेना-भाजपा गठबंधन इस बार भी लक्ष्य चूकता नजर आएगा। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव में एक माह का समय बचा है और यदि अब भी दोनों पक्षों ने बीच का रास्ता नहीं निकाला, तो नुकसान दोनों को है। शिवसेना तो स्व. बाल ठाकरे के प्रति मराठी मानुष की सहानुभूति लहर को भुना लेगी, मगर भाजपा के पास अब मोदी लहर को भुनाने का भी मौका नहीं रहेगा। मतलब, बड़ा नुकसान भाजपा को ही होगा।

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