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देश की गरीबी का सच

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भारतीय गरीबो को अब सरकार पर तरस आना चाहिए जैसे तैसे गरीबो को सरकार से बोल देना चाहिए कि हम जैसे है वैसे रहने दो। हम गरीबो का भी कुछ सम्मान है उसे हमे महसूस करने दो हम पर दया मत करों आखिर क्या दिया है हम गरीबो ने इन सरकारो को जो हम पर आजादी के कुछ दिन बाद से ही रहम दिखा रहे है हमारी गरीबी परिभाषा तय कर रहे है और आज तक हम परिभाषित नही हो पाए।

1971 में नीलकांत डांडेकर और वीएम रथ ने गरीबी के पैमाने तय किए उसके बाद, 1979 मे वाई के अलघ कमिटी, 1993 मे लकड़वाला कमिटी, 2004-05 मे सुरेश तेंदुलकर कमिटी, तथा 2012 मे सी. रंगराजन कमिटी इसके अतिरिक्त और तमाम कमिटी बनायी गयी जैसे एस. आर. कमिटी, एन सी. सक्सेना कमिटी आदि और इन सब के बाद राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन(नीति आयोग) भी प्रत्येक पॉच साल पर गरीबी का पैमाना तय करता रहता है. सच यह कि आज तक किसी को सफलता नही मिली भारतीय गरीबी का आकलन करने मे इन सबका आपस म हीे विरोधाभास रहा. शायद विश्व युद्ध के परिणाम और कारण के जॉच लिए सभी प्रभावित देशो ने मिलकर इतनी कमेटी नही बनायी गयी होगीं जितनी की देश के गरीबी के लिए बनी। एक काम जरूर इन कमेटियों ने किया अपने अपने रिपोर्ट मे गरीबो की संख्यॉ मे निरंतर परिवर्तन किया है मेरे समझ से दो-चार कमिटी अगर और बना दी जाए तो भारतीय देश से गरीबी अपने आप खत्म हो जाए ।

भारत की सबसे बड़ी समस्या गरीबी है और इस गरीबी का सबसे बड़ा कारण सरकार है अगर गरीबो को मदद सरकार न देती तो आज गरीब-गरीब न होते वे अपने मेहनत से अबतक आगे निकल चुके होते अगर गरीबो की संख्यॉ मे वास्तविकता कुछ कमी आयी है तो वह उनकी मेहनत से हुआ है सरकारो के अहसान से नही।

आज तक सभी योजनाए गरीबो के नाम पर बनती रही है लेकिन इन योजनाओं का जमीनी प्रभाव कहॉ पड़ा यह सबको पता है। जनता, सरकार और कमिटी सब जानते है कि सरकारी योजनाएॅ एक वर्ग बनाने मे कामयाब हुयी। ऐसा बिल्कुल नही है कि गरीबो ने ऊपर उठने की मेहनत नही की बल्कि कामयाब नही हुए क्योकि इसका बड़ा कारण है कि उनके हिस्से का लाभ जिसने लिया वह दोहरे लाभ मे था और पहले से मजबूत भी और साथ ही साथ सामाजिक बुराईयॉ भी उनका पीछा नही छोड़ रही है। गरीबी पर गठित कमेटियों की वास्तविकता पर नजर नही गयी उनके रिर्पोट तो गरीबो से भी अधिक गरीब थें….कोई रोज का खर्च तो कोई कैलोरी नापता रहा और कुछ ने तो घर मे टेलीविजन और साइकिल देखकर गरीबी का आकलन किया। जबकी यह सब गरीबी ऑकने का कोई तर्क नही हो सकता और तो और जो कुछ कमेटियों ने किया भी उसपर भी कुछ अम्ल नही हो पाया क्योकि एक्शन लेना मकसद ही नही था

आज अगर सरकारी कागजो को छोड़कर वास्तविकता को आधार बनाया जाए तो 40 से 50 प्रतिशत लोग गरीब है और सरकारो का काम करने का तरीका यही रहा तो गरीबी दिनो दिन बढ़ती रहेगी।

दुख जब होता जब हम गरीबो पर प्रत्येक नेता और अफसर अपनी दयादृिष्ट्री बनाए रखते है, आखिर क्यो हमारा मजाक बनाया जा रहा है सभी योजनाएॅ और विकास हमारे लिए ही क्यो हो रहे है, यह सब क्यो होता है जब हम जैसे के तैसे ही रह जाते है।

आज की सरकार का ही उदाहरण ले लो लगभग गरीब से सम्बधित योजनाओं को लाने मे अर्धशतक लगा चुकी है लेकिन कागजी रिकार्ड ही मेनटेन है जिसको लेकर नेता घूमते रहते है और उस राज्य मे जाकर पढ़ देते है जहॉ उनकी सरकार नही है ताकि उनको इस भ्रम डाला जा सके कि जहॉ हमारी सरकार है वहॉ विकास की धारा बह रही है लेकिन याथार्थ कुछ और है।

अगर अंतत: देखा जाए तो दोष इन सरकारो का भी नही बल्कि इसके दोषी हम स्वयं है जो इनके मकड़जाल मे फसें रहते है। हम गरीबो को अपने समस्यॉ के जड़ का स्वयं पता लगाना होगा हमको सम्प्रदॉय, जाति, अशिक्षा जैसी बिमारी का इलाज करना होगा, यह मूल जड़ है हमारी गरीबी का।

इस राजनीतिक शोषण को समझो. यही राजनीति आपका हथियार है और यही आपका दुश्मन भी आप इससे पीछा मत छुड़ाओ बल्कि इसकी दिशा मे परिवर्तित करो और अगर आप ऐसा नही करते हो तो यह राजनीति का कभी न खत्म होने वाला मुद्दा बना रहेगाॅ जिसका पूरा लाभ राजनीतिक दल उठाते रहेगें।

यह गरीबी ही मूल समस्या है सम्प्रदॉयवाद, और जातिवाद का, लेकिन दुख तब होता है जब है पता होता है कि यही सब मूल आधार है भारतीय राजनीति का।

Santosh kumar (India)

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