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नयी सुबह का इंतज़ार…

Social Issues
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यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता

उक्त श्लोक से स्पष्ट है की किसी भी समाज की खुशहाली, उन्नति उस समाज की महिलाओं की स्थिति पर निर्भर करती है. इतिहास गवाह है की जिन समाजों में महिलाओं को बराबरी या उच्च दर्ज प्राप्त है, वह विकास में अपने समकालीन समाजों से कई मीलों आगें हैं. यह कहने में अतिश्योक्ति न होगी की वैदिक काल से ही चाहें याज्ञवलक्य को शास्त्रार्थ की चुनौती देती गार्गी हो, चाहें मैत्रेयी या गंधार्वग्रहिता हो, ऐसी कई विदुषी महिलाएं अपने गौरवशाली व्यक्तित्व से समाज को आलोकित कर चुकी हैं.

मध्यकाल में विदेशी आक्रमण के समय बाल विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा प्रबल होते हुए भी कई महिलाओं जैसे रानी दुर्गावती, अहिल्याबाई, जिजाबाई आदि ने अपनी अपनी सशक्त भूमिका अदा की. स्वतंत्रता संग्राम में भी कई आन्दोलनों में महिलाओं की बढ़ चढ़ कर हिस्सेदारी रही. स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही समानता पर आधारित लोकतांत्रिक मूल्यों की बयार ने महिलाओं को घर की दहलीज़ से निकाल कर विश्व पटल पर स्थापित किया वही नीति नियामक स्तर पर भी यह महसूस किया गया की बिना आधी आबादी के किसी भी लोकहितकारी कार्यक्रम की शत प्रतिशत सफलता सुनिश्चित नहीं की जा सकती है. महिला सशक्तीकरण के तमाम अभियानों और योजनाओं का ही परिणाम था की २० वीं सदी के अंतिम वर्षों में आर्थिक उदारीकरण के वक़्त महिलाओं ने कई नए क्षेत्रों जैसे आधुनिक अभियांत्रिकी, प्रबंधन, आई. टी.(जिसमे ९०% भागीदारी महिलाओं की ही है) आदि में अपनी ठोस उपस्थिति दर्ज करायी.

परन्तु इसी तस्वीर का स्याह पहलू भी रहा की कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो महिलाओं की बढती भागीदारी सामंती पुरुषोचित अहम् को बहुत रास नहीं आई. महिलाओं के विरुद्ध दिनों दिन बढ़ते अपराध के आंकड़े इसकी पुष्टी करते हैं. पिछले साल अमेरिका की न्यूज़वीक पत्रिका की रिपोर्ट अनुसार न्याय, स्वास्थ, आदि पैमानों पर भारतीय महिलाओं की स्थिति अत्यंत बुरी (१६५ देशों में १४१ वें स्थान पर) है. संयुक्त राष्ट्र महासंघ की २०१२ की एक रिपोर्ट अनुसार पूरे विश्व में और ख़ास तौर से भारत में महिलाओं के प्रति हिंसा एवं अपराध के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं. अभी हाल में दिसम्बर की सामूहिक दुष्कर्म की घटना के बाद तो यू. एन की ओर से जारी व्यक्तव्य में ‘दुष्कर्म को भारत की राष्ट्रीय समस्या’ तक करार कर दिया गया है.

बहरहाल उक्त घटना के बाद से ही सशक्त आन्दोलन के बूते सरकार द्वारा कई ठोस कदम उठाने की बात कही गयी, वर्मा समीति ने अपनी रिपोर्ट पेश की और अब कई ठोस कानून बनाने और कईयों में यथोचित बदलाव के भी संकेत दिए गए परन्तु यह कितने कारगर और मददगार साबित होंगे यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा. स्थिति तो यह है की चाहें दिल्ली एनसीआर हो या फिर झाँसी कानपुर जैसे शहर, महिलायें स्वयं की सुरक्षा को लेकर चिंतित हो गयी हैं.

प्रश्न उठता है की क्या मात्र कड़े कानून बनाने से या नयी-नयी योजनाओं के लाने से ही महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों पर अंकुश लगाया जा सकेगा? शायद नहीं क्यूंकि यह मात्र कानून द्वारा हल होने वाली समस्या नहीं है वरन समाज द्वारा उत्पन्न हुई, समाज के द्वारा हल की जाने वाली समस्या है.
पिछले कुछ वर्षों में हम देखें तो आर्थिक उदारीकरण के बाद से देश में संचार प्रणाली के रूप में इन्टरनेट , मनोरंजन के लिए विभिन्न विदेशी चैनलों की भरमार हो गयी . बाजारवाद के चलते इन माध्यमों से महिलाओं को उपभोग की वस्तु के तौर पर दर्शाया जाने लगा. आज के वक़्त में चाहें इन्टरनेट हो, जिसकी पहुँच आज लगभग हर युवा तक है या फिर आज की फ़िल्में हो, जिनमे महिलाओं के पात्र को ‘आइटम’ के तौर पर पेश किया जाने लगा है, यह सब महिलाओं के प्रति समाज में खासकर युवाओं में, विकृत सोच का निर्माण कर रहें हैं.

कहा जाता है की ठोस नींव से ही मज़बूत इमारत का निर्माण होता है. बच्चों की प्रथम पाठशाला घर ही होती है, जहाँ विभिन्न संस्कारों की शिक्षा दी जाती है. परन्तु आज समाज में इस चीज़ की कमी देखने को मिल रही है. जहां बचपन से ही बच्चों को नैतिकता, लैंगिक समानता, संवेदनशीलता आदि के बारे में सिखाना होगा वही लड़कियों को भी ये सिखाना होगा की अपना आत्मविश्वास हमेशा उच्च रखें, किस बात पर कैसे प्रतिक्रिया दें, अपने परिवार वालों से खुल कर बातें साझा करें और अपनी जड़ो और नैतिकता से कभी समझौता न करें. वहीँ स्कूलों में भी जहाँ विज्ञान कला आदि के लिए तो पाठ्यक्रम होते हैं परन्तु नैतिकता, लैंगिक समानता, महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कोई पाठ्यक्रम अभी तक नहीं है (अभी हाल ही में सीबीएसई ने ज़रूर इस बाबत पहल की है परन्तु प्रदेश स्तर पर अभी ऐसी कोई तैयारी नहीं है) वहाँ भी यह अनिवार्य विषय के तौर पर पढाया और सिखाया जाना चाहिए जिसका स्तर इंटर कॉलेज से लेकर डिग्री कॉलेज तक सेमिनार और वर्कशॉप्स के रूप में बढ़ाया जाना चाहिए, जिसमे खासतौर से नवयुवकों की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए.

अंत में मैं यही लिखना चाहूंगी की इस समस्या पर सरकार, मीडिया और समाज को अपनी अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर पहल करनी होगी और जल्द ही हल भी खोजना होगा क्यूंकि हम देख रहें हैं की इन घटनाओं और महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों के चलते कन्या भ्रूण ह्त्या आदि में भी कोई खास कमी नहीं आ रही है, भारत का लैंगिक अनुपात मात्र ९४० रह गया है जो कि हमारे पडोसी, कम विकसित मुल्कों जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि से भी कम है. स्थिति और विस्फोटक न हो जाए इससे पहले सबको सम्मलित, सार्थक प्रयास करने ही होंगे जिससे भारत की महिलाओं को एक सुरक्षित और संभावनाओं भरा आज और कल मिल सके, जिसमे वह अपना सर्वोत्तम दे कर, देश की उन्नति में सहायक हो और भारत को विश्व के अग्रिम पंक्ति के राष्ट्रों में खड़ा होते देख सकें.

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