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दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी कालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी

Vichar Manthan
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johar

संजय लीला भंसाली की फिल्म पर विवाद बढ़ता जा रहा है |करनी सेना एवं कुछ राजपूत संगठन किसी भी कीमत पर फिल्म को चलने नहीं देना चाहते है सुप्रीम कोर्ट द्वारा फिल्म पर रोक लागने से मना करने पर वह तोड़ फोड़ एवं आगजनी पर उतर आये हैं| सिनेमाघरों के मालिकों और दर्शकों को चेतावनी दी जा रही है वह फिल्म का बहिष्कार करें| फिल्म पर राजनीति भी कम नहीं हो रही  कुछ मुस्लिम मौलाना एवं सेकुलरिज्म की दुहाई देने वाले कह रहे हैं रानी पद्मावती ऐतिहासिक नहीं है उनके अनुसार तत्कालीन इतिहासकारों , अमीर खुसरो और जियाउद्दीन बरनी ने ऐसे किसी युद्ध का वर्णन नहीं किया जिसमें जौहर हुआ हो जबकि अमीर खुसरो ने स्पष्ट तौर पर नहीं लेकिन संकेतों में चितौड के युद्ध का उल्लेख किया है | खुसरो पूरी तरह से सुलतान अलाउद्दीन के मातहत थे उन्होंने अलाउद्दीन खिलजी और उसके सेनापति मलिक काफूर नाम के किन्नर से उसके सम्बन्धों का भी जिक्र नहीं किया जबकि बरनी ने विस्तार से लिखा है सुलतान अलाउद्दीन मलिक काफूर पर कितना आसक्त था ? उसने अलाउद्दीन को जहर दिया सुलतान की मृत्यू के बाद कुछ समय तक किंग मेकर बना था | बरनी ने दिल्ली के तख्तनशीन फिरोज तुगलक तक का इतिहास लिखा है|

“मध्य युगीन इतिहास लिखा नहीं लिखवाया (डिक्टेट ) जाता था” |1303 में चितौड के दुर्गम किले के मैदान में 16000 राजपूतानियों सहित रानी पद्मनी ने जौहर किया था | राजपूतों केसरिया बाना पहन कर मुहँ में तुलसी दल दबा कर अंतिम युद्ध के लिए तैयार खड़े थे | धधकती चिताओं से उठती ज्वालाओं के बाद किले का द्वार खोल कर वीर दुश्मन की विशाल सेना पर टूट पड़ा हर वीर कट गया सबने प्राणों की आहुति दी |विजयी सुलतान के हाथ बुझी चिताओं की राख लगी | रानी पद्मनी राजस्थान के इतिहास एवं  लोककथाओं का पूजित पात्र हैं , उन्हें मलिक मौहम्मद जायसी के ग्रन्थ पद्मावत की कोरी कल्पना नहीं अपितु सच्ची कथा मानते हैं | सुलतान अलाउद्दीन के जीवन का काला पन्ना, चितौड़ का किला हाथ आया लेकिन किस कीमत पर ? सुलतान जीत कर भी हार गया था | देश का दुर्भाग्य था राज्य आपस में इतने बटे थे उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए अकेले लड़ना पड़ता था महत्वकांक्षी सुलतान अलाउद्दीन का साम्राज्य दक्षिण तक फैल गया था | अफ़सोस इतिहास से सबक नहीं सीखा आज भी भारत के टुकड़े करने के नारे लगते है| क्या यह अमर गाथा राजपूताने से निकल कर सम्पूर्ण भारत को नहीं जाननी चाहिए ?

जियाउद्दीन बरनी की अमूल्य कृतियों में दो इतिहास के प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रथम तारीख –ए- फिरोज शाही दूसरा फतवा –ए – जहाँदारी हैं | यह ग्रन्थ बरनी के राजनीतिक चिन्तन को दर्शाते हैं जिनमें  मुस्लिम सुल्तानों की राजनीतिक सोच का वर्णन है |बरनी लिखते हैं इतिहास लिखते समय इतिहास कार को सुल्तानों की प्रतिष्ठा, गुणों, एवं उत्तम कार्यों आदि का उल्लेख करना चाहिए लेकिन उनके अनाचारों और बुराईयों को बिना किसी पक्षपात के छुपाना नहीं चाहिए |यदि उचित समझे तो स्पष्ट अथवा संकेतों से बुध्धि मान व्यक्तियों को सचेत अवश्य कर दे |क्या ऐसा सम्भव था ? दिल्ली के सुलतान निरंकुश थे क्या उनकी मर्जी के बिना कुछ भी लिखना सम्भव था?  बरनी का अंतिम समय बहुत कष्टमय था उन्होंने स्वयम अपने अंतिम चरण के विषय में लिखा है रात को वह अमीर सोये थे परन्तु सुबह वह फकीर के रूप में जागे घटना क्रम इतना बदल गया |अल्लाह की नेहमत, प्रारम्भ में मुझे सम्मानित किया परन्तु अंत में मैं कलंकित हुआ मित्रों ने भी साथ छोड़ दिया चिड़ियाँ और मछलियाँ भी अपने घरों में खुश है परन्तु मैं नहीं क्योंकि दिल्ली का सुलतान फिरोज तुगलक उन पर कुपित था | बरनी अमीर खुसरो के घनिष्ट मित्र थे उनको निजामुद्दीन ओलिया की दरगाह में खुसरो की कब्र के पास दफनाया गया था|

बरनी की मूलभूत मान्यता थी इस्लामी दुनिया की शुरूआत हजरत मुहम्मद के जन्म के साथ हुई थी सत्ता का असली स्तोत्र खुदा है कुरान खुदा का आदेश है सत्ता खुदा के द्वारा पैगम्बर हजरत मुहम्मद को सौंपी गयी उनके बाद सुल्तानों के हाथ में आई अत :सुलतान खुदा की छाया है वह खुदा तथा हजरत मुहम्मद के प्रतिनिधि के रूप में तख्तनशीन होता है अत : सत्ता पर स्वयं का स्वतंत्र रूप से अधिकार नहीं होता |बरनी के राजनैतिक चिन्तन का केंद्र सुलतान रहे हैं जिसकी कार्यपालिका एवं न्यायिक शक्तियाँ असीमित हैं| सत्ता का प्रयोग उसे विवेक के आधार पर करना चाहिए सुलतान अलग –अलग कार्यों के अधिकारियों की नियुक्त करते हैं वह तब तक अपने पद पर बने रह सकते हैं जब तक वह सही काम करते हैं यदि प्रशासक भ्रष्ट हो जाए सत्ता का दुरूपयोग करे सुलतान की छवि खराब हो जाती है वह चाहते थे सुलतान अपने आतंक का निशाना आम जनता को न बना कर उन प्रशासकों को बनाएं जो जनता का शोषण कर दौलत बटोरते हैं ऐसे प्रशासक को दंडित कर नये की नियुक्ति हो|

बरनी स्वेच्छाचारी तथा शक्ति के आधार पर आधारित शासन में आस्था रखते थे वह सुलतान की असीमित सैन्य शक्ति में विश्वास और उसकी बढोत्तरी के समर्थक रहे हैं| सैनिकों के वेतन में यदि कटौती की जाये बचे धन का उपयोग सैनिकों की संख्या की बढोत्तरी एवं अस्त्र शस्त्रों की खरीद में खर्च किया जाए फतवा-ए जहाँदारी में जोर देकर लिखा है सुलतान को पड़ोसी राज्यों को जीत कर जितना सम्भव हो सके अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहिए लेकिन सल्तनत में राजनीतिक स्थिरता बनी रहे | उनकी नजर में अलाउद्दीन खिलजी आदर्श सुलतान था , अच्छा सुलतान अच्छा  लुटेरा भी होना चाहिए इससे उसकी सम्पदा बढ़ेगी उसे असीमित कर लगाने का अधिकार होना चाहिए जिससे रियाया दबी रहेगी लेकिन सरकारी खजाने पर सुलतान का अधिकार हो शाही प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए जितना चाहे धन खर्च किया जा सके |

सुलतान की वैधानिक शक्ति के सम्बन्ध में बरनी लिखते है सुलतान को कानून बनाने के लिए सभी सलाहकारों से मशवरा लेना चाहिए यदि सभी का एक मत हैं मशवरा मान ले यदि मतभेद है एक बार फिर से मशवरा लेना उचित है अंतिम निर्णय का अधिकार सुलतान के पास होना चाहिए| रियाया के लिए कानून का पालन अनिवार्य है यदि सुलतान कानूनों का पालन करवाने में समर्थ है शासन के सभी विभागों में एकरूपता रहेगी सुलतान यदि जनता की भलाई के बजाय उनका शोषण करता है उसे उखाड़ कर फेका जा सकता है |सुलतान को खेरात देने के स्थान पर जन कल्याणकारी होना चाहिए ऐसा न करने पर लोग शासन से विमुख हो जायेंगे जिससे राजस्व की बसूली कठिन हो सकती है |शासक को गुलामों की भलाई के लिए राजस्व का बड़ा भाग उन पर खर्च करना चाहिए इससे मालिक और गुलाम का दर्जा छोटा बड़ा नहीं रहेगा वह सुलतान के वफादार रहेंगे |

बरनी इतिहास को मानव गतिविधियों की चित्रावली मानता है जो अनेक कठिनाईयों और जिन्दगी के सफर में उसकी की गयी गलतियों से आगाह करता है एक साधारण इन्सान भी जब जान लेता है की पैगम्बरों और देवदूतों को भी किस प्रकार से यातनाएं सहन करनी पड़ी थीं स्वाभाविक रूप से उसकी सहन शीलता बढ़ जाती हैं |

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