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मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक संजय लीला भंसाली की ‘रानी पद्मावती’ की अमर गाथा पर बनाई फिल्म रिलीज होने को तैयार है, लेकिन उसका जमकर विरोध हो रहा है। फिल्म निर्माण के शुरुआत से ही विवादों के घेरे में है, यदि झूठी प्रसिद्धि और दर्शकों को सिनेमा हाॅल में खींचने के लिए फिल्मकार ने इतिहास से छेड़छाड़ की है, तो विरोध होना लाजिम है। संजय लीला भंसाली का दावा है उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। कुछ फिल्मकारों का मत है कि भारत के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार है।
क्या अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर भावनाओं को आहत करने की भी स्वतन्त्रता है? फिल्म का बीमा भी करवा लिया है। फिल्म के विरोध में कहा जा रहा है कि स्वप्न में अलाउद्दीन के साथ रानी पद्मावती को दिखाया गया है, ऐसा अक्सर फिल्म निर्माता करते रहते हैं। कुछ को रानी के घूमर नृत्य में साथ देने पर एतराज है। कुछ मानवाधिकारवादी फिल्म को सती प्रथा को गौरवान्वित करने वाली मानकर विरोध कर रहे हैं।
निर्देशक संजय लीला भंसाली ने आगे आकर सफाई पेश की है कि फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है। उन्होंने कहा कि फिल्म बहुत ईमानदारी और मेहनत से बनाई गयी है। फिल्म राजपूतों की वीरता रानी पद्मिनी के आत्म बलिदान को नमन करती है। फिल्म के दर्शक देखने के बाद जानेंगे रानी कितनी वीर और महान थीं। संजय लीला भंसाली के अपने नाम के साथ अपनी माँ का नाम लगाना दर्शाता है कि उनके मन में नारी जाति के लिए कितना सम्मान है।
16 शृंगार से सजी राजपुतानियां, जिनके खुले लम्बे केश हवा में लहरा रहे थे, कुमकुम उड़ाती, नारियल उछालती, वीर रस से भरी वीरता के गीत गाती अपने निवासों से निकली उनके चेहरे पर मौत का जरा भी भय नहीं था। उनका नेतृत्व चित्तौड़ के राजा रतनसेन की रानी पद्मावती कर रही थीं। उनके मुख पर अपूर्व तेज था। सबसे पहले अपने लिए बनाये ख़ास स्थान पर वह चिता में कूदीं।
उनके साथ ही 16000 राजपुतानियों ने आत्म सम्मान की रक्षा के लिए सामूहिक चिता में आत्म बलिदान दिया। कहीं चीत्कार नहीं, चितायें धूं-धूं कर जलने लगीं। मैदान से ऊँची लपटें देखकर अपना सब कुछ खो चुकी केसरिया पाग पहने राजपूतों की सेना किले के द्वार खुलते ही तीव्र गति से बाहर निकली। मरण का अंतिम युद्ध, हर सैनिक शत्रु के लिए साक्षात मौत था। खून की होली खेली गयी। राजपूती सेना दुश्मन की विशाल सेना को काटने और स्वयं कटने लगी। भयंकर रक्तपात इतिहास के पन्नों में दर्ज है।
युद्ध की समाप्ति के बाद अलाउद्दीन ने किले में प्रवेश किया। सामने सुलगती हुयी चितायें उनकी गर्म राख थीं, सब कुछ समाप्त। किला जौहर का मूक गवाह था। रानी ने जिस बंद स्थान पर चिता में प्रवेश किया था, वहाँ हड्डियां भी राख हो चुकी थीं। सामूहिक जौहर को देखकर अलाउद्दीन सहम गया। सम्मान की रक्षा के लिए जौहर कर रानी और राजपूतानियां इतिहास के पन्ने पर अमर हो गयीं।
आज भी गाइड चित्तौड़ के किले के मैदान में ले जाकर रानी की गौरव गाथा गाते हुए जौहर स्थल की आेर इशारा करते हुए कहता है कि यहाँ रानी चिता में कूदी थी। ऐसी थीं रानी पद्मावती, राजपुतानियां और राजपूतों का शौर्य, जिनके जीते जी दिल्ली का अलाउद्दीन किले में प्रवेश नहीं कर सका था। यह उस समय का महिला सशक्तिकरण था। इतिहास के पन्नों में अंकित चित्तौड़ की रानी पद्मावती की गौरव गाथा परी कथा नहीं है।
चित्तौड़ के राजा रतन सेन की रानी पद्मावती जो रूप और गुणों में अपूर्व थीं, जिन्हें पाकर राजा धन्य हो गये, उनकी गाथा है। रानी के रूप और गुणों की चर्चा दूर-दूर तक फैली हुई थी। चर्चा दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन के कानों में भी पहुंची। वह रानी को अपने हरम में शामिल करने के लिए उतावला हो गया। उसके हरम में एक से बढ़कर एक सुंदरियां थीं। यही नहीं उसके मलिक काफूर नामक एक किन्नर से भी सम्बन्ध थे।
चित्तौड़ के किले पर हमला करने का उचित बहाना और रानी को पाना समझ में आ गया। वह पहले भी देवगिरी के राजा कर्ण सिंह को हराकर उनकी बेशुमार दौलत और पत्नी कमला देवी को जीत लाया था। उसने राजा रतनसेन को संदेश भिजवाया कि चित्तौड़ की रानी रूपवान और गुणी हैं, उन्हें उसके हवाले कर दिया जाये। संदेश पढ़कर राजपूतों का खून खौल गया। आन और सम्मान पर हमला था। राजपूत जीवन उत्सर्ग करने को तैयार हो गए।
अलाउद्दीन की सेना ने चित्तौड़ के आसपास मारकाट मचा दी और किले को घेर लिया, लेकिन अलाउद्दीन के लिए देर तक राजधानी छोड़ना भी सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं था। उसने राजा के पास संदेश भिजवाया। उसने रानी के अपूर्व सौन्दर्य के चर्चे सुने हैं, वह केवल रानी को देखना चाहता है। राजा ने कूटनीति से काम लिया उन्होंने संदेश का उत्तर देकर कहा कि चितौड़ में सुल्तान का स्वागत है, लेकिन रानी किसी के सामने नहीं आती हैं।
चितौड़ के किले में सुल्तान का विधिवत स्वागत किया गया। अलाउद्दीन ने देखा कि किला क्या पूरा शहर बसा हुआ है। पूरी तरह सुरक्षित किला है। उसके गुप्तचर किले की टोह ले रहे थे। सुलतान को रानी कहीं भी नजर नहीं आईं। दबाव देने पर अलाउद्दीन को तालाब के किनारे बैठी रानी का प्रतिबिम्ब शीशे में दिखाया गया। अपूर्व सौन्दर्य देखकर सुल्तान की आँखें फट गयीं। वह पद्मावती की कामना और चित्तौड़ के दुर्गम किले पर अधिकार की इच्छा मन में लेकर लौट गया।
दूसरी बार सुल्तान विशाल सेना लेकर आया और किले पर घेरा डाल दिया। धीरे-धीरे किले की रसद खत्म होने लगी। बाहर भयंकर मारकाट मची थी। अब कोई चारा न देखकर रानी ने सुल्तान के हाथों पड़ने से उचित जौहर करने की ठानी। राजपूतों ने अंतिम युद्ध की तैयारी की। केसरिया पाग पहनी, एक-एक राजपूत कट मरने को तैयार था। दुर्ग के मैदान में विशाल चिता सजाई गयी। रानी के लिए वहीं बंद स्थान पर चिता बनाई गयी। 16000 राजपुतानियों ने जौहर का व्रत लिया। रानी और राजपूतानियों की गौरव गाथा अमर हो गयी। विवाद है उसी गाथा को तोड़ मरोड़कर फिल्म निर्माता भुनाना चाहता है। बिना फिल्म देखे हम कैसे कह सकते हैं। जरूरत है बुद्धिजीवियों को फिल्म दिखलाकर उनकी राय लेने की।
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