सबसे पहले धूमिल की एक लंबी कविता ‘पटकथा’ से कुछ पंक्तियाँ:
“यह जनता…..
उसकी श्रद्धा अटूट है
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
घोड़े और घास को
एक-जैसी छूट है
कैसी विडम्बना है
कैसा झूठ है
दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।…”
राजनीति एक ऐसा शब्द है जिसमें राज करने की नीति शामिल होती है और इस बात को बड़ी गंभीरता के साथ समझना होगा कि यदि हम सत्ता में परिवर्तन चाहते हैं तो वो भी राजनीति का हिस्सा है. पर सत्ता अपने स्वार्थ के लिए पाना और जनता के लिए सत्ता परिवर्तन करना दोनों में भारी अंतर है. जब हम जनता के लिए सत्ता में परिवर्तन की मांग करते हैं तो एक क्रांति की जरूरत होती है पर कभी-कभी हम हजारों लोगों की भीड़ को क्रांति करने का जरिया मान लेते हैं और यह भूल जाते हैं कि भीड़ से क्रांति नहीं होती है. क्रांति करने के लिए एक ऐसे अभियान की जरूरत होती है जिसमें शामिल होने वाला प्रत्येक व्यक्ति सच में क्रांति चाहता हो.
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जनआंदोलन वो आंदोलन होते हैं जो बिना किसी स्वार्थ के जनता के लिए शुरू किए जाते हैं पर सवाल यह उठता है कि क्या सच में वो आंदोलन जनता के लिए होते हैं या उनके पीछे भी एक स्वार्थ होता है. सोचिए जरा यदि किसी मैदान में हजारों लोगों की भीड़ एकत्रित कर ली जाए और वो हजारों लोग सिर्फ मैदान में एक आकर्षण से प्रभावित होकर आए हों तो कभी भी ऐसी हजारों की भीड़ से परिवर्तन नहीं हो सकता है. कुछ ऐसे बिन्दु हैं जिन पर सोच-विचार करने की जरूरत है.
याद होगा आपको वो दिन जब 4 अप्रैल को जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे ने जनलोकपाल के लिए अनशन किया था और उस अनशन में हजारों लोगों की भीड़ भी एकत्रित हुई थी पर यह भी सच है कि उस हजारों लोगों की भीड़ में से शायद ही ऐसे लोग थे जिन्हें पता था कि आखिर हम लोग जंतर-मंतर पर क्यों एकत्रित हुए हैं तो फिर क्या आप ऐसी भीड़ से क्रांति की उम्मीद कर सकते हैं.
‘हम चाहें तो 15 अगस्त के दिन प्रधानमंत्री को लाल किले पर तिरंगा फहराने से रोक सकते हैं, लेकिन हम ऐसा नहीं करेंगे’ यह शब्द बाबा रामदेव के हैं. अगर इन शब्दों पर ध्यान दिया जाए तो यह शब्द यह बताते हैं कि वो भारत के प्रधानमंत्री पद पर सवाल उठा रहे हैं जिसे देश किसी भी अर्थ में स्वीकार नहीं करेगा. पद की गरिमा और व्यक्ति की गरिमा पर सवाल उठाने में अंतर है. भारत के संविधान में अनुच्छेद 19 ए में प्रत्येक व्यक्ति को अभिव्यक्ति का अधिकार प्रदान है पर अभिव्यक्ति के अधिकार का जरा भी यह मतलब नहीं है कि आप किसी भी पद की गरिमा पर सवाल उठा दें(आप व्यक्ति पर सवाल उठा सकते हैं क्योंकि पद धारण करने वाला गलत हो सकता है किंतु पद पर सवाल उठाना सर्वथा गलत होगा).
एक आंदोलन में सबसे बड़ी विडबंना यह होती है कि जब आप अपने आंदोलन में भीड़ को जुटाने के लिए पैंतरे आजमाते हैं और ऐसे पैंतरों की खोज करते हैं जिनसे आकर्षित हो कर हजारों लोग मैदान में आ जाते हैं तो फिर क्या मतलब रह जाता है ऐसे आन्दोलन का जिसमें हजारों लोगों की भीड़ तो है लेकिन वो भीड़ निरर्थक है. क्या इससे किसी भी प्रकार के बदलाव की उम्मीद की जा सकती है.
किसी भी आन्दोलन को शुरू करते समय यह तय किया जाता है कि आखिरकार आप जनता को एकत्रित करने की बात तो कर रहे हैं. पर मुद्दा क्या है इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है जबकि 21 वीं सदी के आन्दोलनों में इन सब मुख्य बातों की हमेशा से कमी रही है जैसे अन्ना हजारे ने एक आन्दोलन शुरू किया जिसका मुद्दा भ्रष्टाचार और लोकपाल था पर आज ना जाने उस आन्दोलन में कालाधन, राजनीति जैसे और कितने मुद्दे जुड़ गए. राजनेताओं को जिस आन्दोलन से दूर रखने की बात की गई थी वहीं आज राजनेता ही खुलेआम आन्दोलन के मंच पर सरकार के खिलाफ शोर मचा रहे हैं. यदि आप यह मानते हैं कि आज सभी नेता लगभग एक जैसे हैं तो फिर इस बात से फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि वो नेता कांग्रेस का है या बीजेपी का या फिर किसी और पार्टी का है.
सभी बिन्दुओं पर यदि गंभीरता से सोचा जाए तो अंत में जो बात सामने आती है वो यह है कि इसमें कोई शक नहीं है कि आज हमारे लोकतांत्रिक देश भारत को एक क्रांति की जरूरत है पर साथ ही यह भी सत्य है कि ऐसे क्रांति की जरूरत है जिसमें हजारों लोगों की भीड़ तो हो पर वो भीड़ किसी आकर्षण के कारण ना आई हो. बल्कि वो भीड़ ऐसी भीड़ होनी चाहिए जो स्वयं यह तय करके आई हो कि ‘अब हम लोग ही परिवर्तन करेंगे जो सब के हित में होगा और उस परिवर्तन के पीछे किसी का कोई निजी स्वार्थ नहीं होगा’.
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