जब सभी बच्चे खेल रहे होते हैं, शरारते कर रहे होते हैं, वह फुटपाथ पर खंभे से बंधा अपनी दादी का इंतजार कर रहा होता है. उसकी मासूम आंखों में कोई शिकायत नहीं, बस उदासी नजर आती है. उसके होठों पर न मुस्कान है, न सवाल और अगर कुछ है उसके पास तो बस एक सूनापन. खंभे से बंधे हुए खाली नजरों से वह हर आते-जाते को देखता है. कभी रस्सी का सिरा जहां तक पहुंच सके वहां तक जाकर बस यूं ही खड़ा हो जाता है. कहना मुश्किल है कि कभी जानवर को उसने खूंटे से बंधा हुआ देखा है या नहीं और उन्हें बंधा देखकर खुद को इस तरह बंधे होने पर उसके मन में कोई सवाल उठा है या नहीं. उसकी गलती शायद अक्षम्य है, शायद उसने यह मान लिया है. शायद इसलिए वह अब इसपर किसी से कोई सवाल नहीं करना चाहता.
70 साल की दादी मां, 9 साल का लखन और इनकी जिंदगियों के केंद्र में है मुंबई का फुटपाथ! मुंबई में रहने वाला लखन काले 9 साल का एक बच्चा है लेकिन इस बच्चे की कहानी से बचपना कहीं गुम हो गया लगता है. जानने वाले दांतों तले अंगुलियां दबाते हैं लेकिन यह इस मासूम की जिंदगी की हकीकत है.
बॉलीवुड फिल्मों की तरह दादी और पोते की यह कहानी शुरू होती है मुंबई के फुटपाथ से जहां हर सुबह काम पर जाते हुए यह दादी अपने इस मासूम पोते को खंभे के सहारे रस्सियों से बांध जाती है. सुनने वाले को यह एक क्रूर दादी का काला चेहरा नजर आ सकता है लेकिन इस काले चेहरे में भी एक ममतामयी मां की तकलीफ और बच्चे की दर्दनाक कहानी है. आखिर क्यों एक दादी अपने पोते को जानवरों की तरह खंभे से बांधकर रखती है? जानने के लिए सुकुबाई की कहानी जानना भी जरूरी है.
4 साल पहले सुकुबाई के बेटे और लखन के पिता की मौत हो गई थी. तब से हर रोज खिलौने बेचकर उससे होने वाली कमाई से ही वह अपना और अपने पोते का किसी तरह भरण-पोषण कर रही है. उनके पास कोई घर नहीं, फुटपाथ ही उनका रैन बसेरा है. लेकिन हर सुबह जब वह काम पर जाती है कपड़े से बंनी एक लंबी रस्सी से अपने पोते लखन काले को बांध जाती है. हालांकि ऐसा करना उसकी मजबूरी है, खुशी नहीं.
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सुकुबाई का यह 9 साल का पोता लखन कुछ बोल और सुन नहीं सकता. वह जब पैदा हुआ था तो सामान्य बच्चों की तरह ही था. कुछ महीनों बाद उसे तेज बुखार हुआ और उसके बाद वह इसी तरह है. परिवार में और कोई नहीं है जो उसकी देखभाल कर सके. इतनी उम्र में भी सुकुबाई किसी तरह उसकी देखभाल कर रही हैं लेकिन लखन की देखभाल की जिम्मेदारी आम बच्चों की देखभाल से कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण है. सुकुबाई के न होने पर वह कभी भी खेलते हुए सड़क पर जा सकता है, कुछ सुन न पाने के कारण किसी गाड़ी के सामने पड़कर दुर्घटनाग्रस्त हो सकता है और ऐसे में बोल न सकने के कारण वह किसी से मदद भी नहीं मांग सकता. इसलिए पुराने कपड़ों से तैयार लंबी सी रस्सी में सुकुबाई अपने इस पोते को बांधकर रखती हैं.
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लखन और उसकी दादी सुकुबाई की जिंदगी उन अंधेरी चुनौतीपूर्ण जिंदगियों में हैं जिनपर सरकार या सामाजिक संस्थाओं की भी नजर नहीं पड़ती. विकलांग होकर अपने आप में चुनौतीपूर्ण जीवन जीने के लिए मजबूर ऐसे बच्चों की जिंदगी आसान बनाने के लिए सरकारी प्रयास भी कुछ खास नजर नहीं आते. मुंबई जैसे शहर में विकलांग बच्चों के लिए आश्रय ढूंढना मुश्किल है. विकलांगों के लिए यहां बस एक आश्रय गृह है और वह बहुत ही अधिक भरा हुआ जिसमें एक भी नए सदस्य के आने के बाद उनकी अच्छी देखभाल की उम्मीद नहीं की जा सकती. सरकारी उपेक्षा के कारण इन बच्चों का जीना दुरूह बन जाता है. सीएनएन वर्ल्ड में लखन की खबर आने के बाद सीएनएन ने उसके लिए वुमन एंड चिल्ड्रेन्स अफेयर मिनिस्ट्री, मुंबई (वर्षा गायकवाड़) से भी संपर्क करने की कोशिश की लेकिन कोई रेस्पॉस नहीं मिला.
एक फोटोग्राफर द्वारा किसी स्थानीय न्यूज पेपर में लखन की फोटो छ्पवाने के बाद एक बिजी बस स्टॉप के नजदीक फुटपाथ पर बंधकर रहने वाला यह बच्चा लोगों की नोटिस में आया. एक कॉंस्टेबल ने सामाजिक कार्यकर्ता मीना मूथा से लखन के लिए कुछ करने को कहा. और इस तरह पिछले मई से मीना लखन को एक सामान्य और आसान जिंदगी मुहैया करवाने की कोशिश में लगी हैं. 70 साल की दादी के साथ इस तरह अगर लखन जी भी ले तो ज्यादा दिन तक सुकुबाई दादी की सुरक्षा उसे नहीं मिल सकती है. उम्र ज्यादा होने के कारण सुकुबाई ज्यादा से ज्यादा 5-10 साल उसके साथ रह सकती हैं. इसलिए मीना मूथा लखन की उचित देखभाल के लिए किसी परिवार की तलाश कर रही हैं. तब तक रहने के लिए वह उसे मुंबई के विकलांग सेंटर ले गईं लेकिन वह पहले ही इतना अधिक भरा हुआ था कि लखन की बेहतर देखभाल की उम्मीद वहां नहीं की जा सकती थी. एक विकल्प के रूप में मीना उसे मुंबई में सरकार द्वारा चलाए जा रहे जुविनाइल सेंटर (किशोर गृह) ले गईं. फिलहाल लखन वहीं रह रहा है जब तक उसे कोई नया परिवार और घर नहीं मिल जाता.
लखन की जिंदगी जानने वालों को उससे सहानुभूति हो सकती है लेकिन अगर देखा जाए लखन एक प्रकार से किस्मत वाला रहा कि फोटोग्राफर की नजर उसपर पड़ी और आज मीना मूथा उसके साथ हैं उम्मीद है उसे एक बेहतर जिंदगी की राह दिला पाने में वह कामयाब भी होंगी लेकिन लखन जैसे सभी बच्चों के साथ मीना नहीं हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में विकलांगों की संख्या लगभग 26.8 मिलियन है. हालांकि वर्ल्ड बैंक के आंकड़े इससे कहीं बहुत अधिक की संख्या बताते हैं.
भारत में 19 साल तक के 1.67 प्रतिशत बच्चे विकलांग हैं. कुल विकलांगों में 35.29 प्रतिशत केवल बच्चों की है और इनके भविष्य की सुरक्षा के लिए कोई निर्धारित उपाय नहीं हैं. एम अन्य आंकड़े के अनुसार भारत में 12 मिलियन विकलांग बच्चे हैं. इन बच्चों की देखभाल और सुरक्षा के लिए भारत सरकार में कोई निश्चित मंत्रालय भी नहीं है जो बच्चों में विकलांगता के बढ़ते आंकड़ों पर प्रतिबद्ध होकर काम करते हों. मात्र 1 प्रतिशत विकलांग बच्चे ही स्कूल जा पाते हैं. भारत में विकलांगता मुख्यत: मिनिस्ट्री ऑफ सोशल जस्टिस एंड एंपावरमेंट (सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय) के अंतर्गत आता है. कुछ मामलों में यह स्वास्थ्य मंत्रालय के अंदर भी आता है. मानसिक विकलांगता के शिकार बच्चों के लिए पौष्टिक खाना मिलना भी एक बड़ी चुनौती है. ऐसे में कुदरत के कहर से पहले ही बचपन खो चुके इन बच्चों का कोई भविष्य नहीं रह पाता. जब तक इस तरह रह पाते हैं, रहते हैं या अकाल मृत्यु के शिकार होते हैं.
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