मेरठ एक बार फिर सुर्खियों में है. इस बार न ही मंगल पांडे और न ही दंगों के लिए. इस बार यह सुर्खियों में है एक ऐसे इंसान के कारण जिसके बारे में जानकर आप उसे इंसान न कह पाने को विवश हो जाएँगे. भारत में एड्स की जागरूकता के लिये नित नये अभियान चलाये जा रहे हैं. लेकिन हकीकत यही है कि इन तमाम अभियानों के बावजूद अभी भी उन बच्चों की तादाद कम नहीं हुई है जो एड्स से पीड़ित होने के कारण सामान्य बच्चों की तरह अपना बचपन गुजार पाने में असक्षम हैं. इनमें से कई बच्चे वैसे हैं जिनके माता-पिता की मौत के बाद उनके सगे-संबंधियों ने उनसे किनारा करने में अपनी भलाई समझी.
लेकिन मेरठ में ऐसे ही करीब 12 एचआईवी पॉजीटिव बच्चों को नये माँ-बाप मिले हैं. वैसे माँ-बाप जिनका उन बच्चों के साथ खून का कोई रिश्ता नहीं है. लेकिन ये फिर भी उन बच्चों को अपने असली माँ-बाप की कमी महसूस होने नहीं देते. सात से सत्रह वर्ष तक की उम्र वाले इन बच्चों को मेरठ के अजय शर्मा के रूप में अपना पिता मिला है. सरकारी इंटर कॉलेज फलौदा में काम करने वाले अजय को 2004 में मस्तिष्काघात होने के कारण पंद्रह दिनों के लिए अचेतावस्था में रहना पड़ा. बीमारी ठीक होने के बाद उन्होंने महसूस किया कि उन्हें एक नई जिंदगी मिली है. इससे प्रभावित होकर उन्होंने अपनी नई जिंदगी को समाज सेवा में लगाने का निर्णय लिया.
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वर्ष 2008 में उन्होंने एचआईवी पीड़ित अनाथ बच्चों की कहानी सुनी जिन्हें उनके संबंधियों ने मारकर सूटकेस में बंद करके रेलगाड़ी में छोड़ दिया था. इस हृदय विदारक घटना के बारे में जानकर अजय को समाज सेवा के अपने उद्देश्य को पूरा करने की जैसे दिशा मिल गई. उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और मुफलिसी में मलिन बस्तियों में जी रहे बच्चों को पढ़ाने के कार्य में जुट गये. उसी वर्ष उन्हें परिवार से परित्यक्त एक एचआईवी पीड़ित बच्चा मिला जो अस्वस्थ था. अजय उन्हें कई अस्पतालों में ले गये लेकिन किसी भी अस्पताल ने उस बच्चे को अपने यहाँ भर्ती नहीं किया. अंत में अजय उस बच्चे को लेकर अपने घर आ गये और स्वयं ही उसकी देखभाल करने लगे. बच्चा जल्दी ही ठीक हो गया और उसे रहने को एक घर भी मिल गया.
फिर अजय शर्मा ने मेरठ के गंगानगर इलाके में एचआईवी पीड़ित अनाथ बच्चों के लिए सत्यकाम मानव सेवा समिति की स्थापना की. लेकिन उनका यह सफर कम मुसीबतों वाला नहीं रहा. इन बच्चों के लिए घर तलाशना सबसे बड़ी मुसीबत थी क्योंकि स्थानीय लोग अपना घर इन एचआईवी पीड़ित बच्चों के लिए देने को तैयार नहीं हो रहे थे. उन्हें लगता था कि इन बच्चों के यहाँ रहने से यह बीमारी और फैलेगी. वो अपने बच्चों को इन बच्चों के साथ खेलने भी नहीं देते थे. इसके अलावा जब अजय ने इन बच्चों के नामांकन के लिए विद्यालयों का रूख किया तो लोगों ने इसमें तरह-तरह की बाधायें डालने लगे.
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यह अजय के अथक प्रयासों का ही नतीजा है कि अब मोहल्ले के लोगों के रूख में परिवर्तन हुआ है. अब बहुत कुछ सामान्य हो चुका है. अजय शर्मा और उनकी पत्नी बबीता मिलकर उन बारह बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल और अन्य जरूरतों को पूरा करते हैं. स्थानीय लोग अब उन बच्चों के जन्मदिन में शामिल होते हैं. स्थानीय विद्यालय भी अब इन बच्चों के नामांकन को लेकर आगे आ रहे हैं. इन बच्चों को अंग्रेजी, हिंदी और गणित की शिक्षा के साथ ही योग की भी शिक्षा दी जाती है. इन बच्चों को भी छोटी-छोटी जिम्मेदारियाँ दी गई हैं. किसी बच्चे पर आगंतुकों का स्वागत करने की जिम्मेदारी है तो किसी पर जूतों को रैक पर रखने की.
सामान्य चल रही ज़िंदगी के बीच अजय और उसकी पत्नी को अपने परिवार के इन बच्चों की मौत का भय सालता भी है. Next…
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