आज के जमाने में जहाँ लोग रत्ती भर काम से अपने आप को सुर्खियों में देखना और पढ़ना चाहते हैं, वहीं ऐसे लोगों की भी कमी नहीं हैं जो तमाम बड़े काम करने के बाद भी प्रसिद्धि के भूखे नहीं है. ये ऐसे लोग हैं जो वास्तव में समाज-धर्म और राष्ट्र-धर्म को निभा रहे हैं. इनके मन में न ही सुर्खियों की कोई भूख है और न ही किसी पुरस्कार की कामना.
ऐसे ही लोगों में से एक हैं शुकुल…..घनश्याम शुकुल. बिहार के सीवान जिले के एक गाँव पंजवार में घनश्याम जी रहते हैं. पहले वो गाँव के ही स्कूल में पढ़ाते थे. ‘पंजवार के गुरूजी’ के नाम से मशहूर घनश्याम जीवन भर अपने ज्ञान से बच्चों को आलोकित करते रहे. ज़िंदगी ढ़लने लगी तो नौकरी की उम्र-सीमा भी खत्म हो गई. नौकरी के दौरान उन्होंने महसूस किया कि उनके गाँव की लड़कियों की पढ़ाई के लिए गाँव में एक भी कॉलेज नहीं है. इस बात को सोच छटपटाते थे कि वो अपनी गाँव की लड़कियों के लिए कुछ कर नहीं पा रहे हैं.
यही सोचते-सोचते उनकी सेवानिवृत्त का समय आ गया. स्कूल के कार्यालय ने उनके पैसों का हिसाब लगाया. कुल मिलाकर घनश्याम मास्साब को 12 लाख रूपये मिले. अब मास्साब के पास दो विकल्प थे; या तो वो अपना सपना पूरा कर लें अथवा उन पैसों को अपनी बची-खुची ज़िंदगी के लिए रख नमक-आटे वालों का जुगाड़ करते रहें. लेकिन मास्साब के लिए उनका सपना जैसे सब-कुछ था. उन्होंने पेंशन के रूप में मिले उन पैसों से तीन कमरों का एक कॉलेज खोला.
उसका नाम उन्होंने प्रभा प्रकाश डिग्री महाविद्यालय रखा. वो जय प्रकाश नारायण के अनुयायी थे. इसलिए उन्होंने महाविद्यालय का नाम भी उनके और उनकी पत्नी के नाम पर रखा. जय प्रकाश नारायण से ‘प्रकाश’ और उनकी पत्नी प्रभावती देवी से ‘प्रभा’ शब्द निकालकर उन्होंने उस महाविद्यालय का नाम ‘प्रभा प्रकाश महाविद्यालय’ रखा. इसके अलावा उन्होंने वहाँ एक संगीत महाविद्यालय की स्थापना में भी योगदान दिया है. इस महाविद्यालय का नाम बिस्मिल्ला खाँ संगीत महाविद्यालय रखा है. आज इस महाविद्यालय में 70 बच्चे संगीत की शिक्षा ले रहे हैं.
घनश्याम का मानना है कि भारत में राजनीति से बड़ा न ही कोई धर्म है और न ही बदलाव का माध्यम. घनश्याम राजनीति के दीवाने हैं, लेकिन जनता की राजनीति, संघर्ष की राजनीति और सृजन की राजनीति के. Next….
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