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महिलाएं कहीं आगे तो कहीं पीछे

देश की आबादी बीते दस सालों में 18.1 करोड़ बढ़कर कुल 121 करोड़ तक पहुंच गई है। जनगणना को लेकर यह अंतरिम आंकड़े हैं। अंतिम रिपोर्ट जो अगले साल तक आएगी, वह इसी पर आधारित होगी। कुछ मामलों में देशवासियों ने प्रगति की है तो कुछ चिंताएं बढ़ाने वाली हैं। हालांकि जनसंख्या वृद्धि दर में 3.9 फीसदी की गिरावट आई है, लेकिन यदि लोगों का जीवनस्तर ऊंचा उठा होता, बाल मृत्युदर पर काबू पा लिया गया होता तो असुरक्षा भाव और घटता। लिहाजा जनसंख्या बढ़ने की दर में और गिरावट आती यानी जनसंख्या में और गिरावट आए, यह भविष्य के एजेंडा पर भी होना चाहिए, जो बिना समग्र विकास के संभव नहीं है।


महिलाओं की स्थिति कुछ कदम आगे तो कुछ कदम पीछे दिख रही है। साक्षरता दर पिछली जनगणना में जहां 64 फीसदी थी, वहीं इस बार वह 74 फीसदी आंकी गई है, जिसमें पुरुषों में जहां यह 6.88 फीसदी ही बढ़ी, वहीं महिलाओं में 11.79 फीसदी बढ़ी है। निश्चित रूप से महिलाओं में शिक्षा के प्रति आकर्षण बढ़ा है, लेकिन अब चिंता सिर्फ साक्षर हो जाने भर की नहीं है, बल्कि यह शिक्षा उन्हें कितना स्वावलंबी बना रही है, यह भी जांचना जरूरी है। दरअसल, समय के साथ समाज के आगे बढ़ने तथा विकसित कहलाने के मानक बदल जाते हैं। 21वीं सदी के हमारे समाज में गुणवत्ता वाली उच्च शिक्षा का प्रतिशत भी मायने रखता है। अब सिर्फ चिट्ठी पढ़ लेने का मामला नहीं है।


फिर भी साक्षरता दर महिलाओं में बढ़ना सुकूनदेह है। कितनी महिलाएं कामकाजी की श्रेणी में यानी सार्वजनिक दायरे में वेतनभोगी कर्मचारी बन पाई हैं, अभी यह पता नहीं चला है। जब जनगणना हो रही थी, तब भी यह बात आई थी कि नौकरीपेशा महिलाओं की स्थिति भी इस बार पता चलेगी। हो सकता है कि बाद में ब्यौरा आए। महिलाओं की स्थिति बदलने में तथा जेंडर गैरबराबरी को कम करने के लिए यह महत्वपूर्ण आयाम होगा। आर्थिक रूप से निर्भर महिला की स्थिति सामाजिक राजनीतिक स्थिति को मजबूत बनाने में भी बाधक होती है यानी केंद्र तथा राज्य सरकारों को स्थिति का जायजा लेकर इस दिशा में निर्णय लेना जरूरी है। सबसे गंभीर मुद्दा अब जो खड़ा हो गया है, वह कन्याओं की संख्या का गिरता अनुपात है। लिंगानुपात में अंतर एक समस्या है, यह तो पहले से पता था, लेकिन स्थिति और बदतर हो गई है, इसका अब खुलासा हुआ। अब एक हजार लड़कों पर 914 लड़कियां हैं, जो पिछली जनगणना में 927 थीं। यह 0 से 6 साल तक की बच्चियों के आंकड़े हैं। हरियाणा और पंजाब में यह अनुपात 830 और 846 के साथ देश के सबसे नीचले पायदान पर है। वहीं साक्षरता में बिहार अब भी सबसे निचले पायदान पर है।


लिंगानुपात के अंतर की स्थिति भयावह होती जा रही है और इस समस्या पर सरकार को कड़े कदम उठाने की जरूरत है। समाधान सिर्फ यह नहीं होना चाहिए कि सरकार जागरूकता फैलाने के लिए कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं का बजट बढ़ा दे तथा कुछ जागरूकता कैंप करवा ले, बल्कि निश्चित राय बनानी होगी कि इस समस्या का मूल कारण क्या है। यदि समाज में औरत के लिए और अधिक अवसर तथा सुविधाएं बढ़ाई जाएं और हर स्तर पर जेंडरगत गैरबराबरी को खत्म करने का संकल्प लिया जाए तो उसका असर पैदा होने पर भी पड़ेगा। भौतिक स्थितियां बदलेंगी तो भेदभाव की मानसिकता को भी चुनौती मिलेगी। हालांकि पिछड़ी मानसिकता भी एक मुख्य कारण है, लेकिन उससे निजात पाने के लिए भी जरूरी है कि सार्वजनिक दायरे में, हर प्रकार की नौकरी-चाकरी में तथा संपत्ति की वास्तविक मालकिन बनने में यदि उनकी संख्या बढ़ती है तो भेदभाव कम होगा। अन्य आंकड़ों को भी जो अलग-अलग स्रोतों से आते रहे हैं, उनके द्वारा भी स्थिति का जायजा हम ले सकते हैं।


उच्च पद प्रतिष्ठा वाले तथा अच्छी आय वाली नौकरियों में महिलाओं की उपस्थिति 4-5 फीसदी ही है। इसी तरह राजनीतिक क्षेत्र, पंचायतों में तो महिलाओं को जगह मिल गई, लेकिन वे वहां और मजबूत बनकर कैसे उभरें, इसका प्रशिक्षण या उपाय नहीं हुआ। साथ ही विधानसभा तथा संसद में ठीक से प्रतिनिधित्व अभी नहीं हुआ। घर के अंदर की गैरबराबरी तथा औरत की कमजोर स्थिति यद्यपि परिवार का निजी मसला माना जाता है, लेकिन वहां भी बदलाव के लिए सरकारी नीतियों में बदलाव तथा फोकस लाना जरूरी होता है।


अंजलि सिन्हा: लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं


साभार: दैनिक जागरण ई पेपर

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